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धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822

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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


सो अनन्य जाके असि मति न टरइ हनुमन्त।
मैं  सेवक  सचराचर  रूप  राशि  भगवन्त।।

इसीलिए श्री भरत प्रत्येक को प्रणाम करते हैं।

मिलहिं किरात कोल बनवासी। बैसानस बटु जती उदासी।।
करि प्रनामि पूँछहि जेही तेही। केहि बन राम लषनु बैदेही।।

श्रुतियों में प्रणाम कर्म के लिए जिस अधिकारी-अनाधिकारी का उल्लेख किया गया है, वह केवल स्थूलदर्शियों के लिए है। यह कोई अनादर की बात नहीं, क्योंकि प्रारम्भ में सभी स्थूलदर्शी होते हैं। अतः उसकी उपयोगिता में कोई सन्हेद नहीं। पर वे जो प्रभु का सर्वत्र ही दर्शन करते हैं, उन अनन्यों के लिए सभी प्रणम्य हैं। भगवान् व्यास भी श्रीमद्भागवत् में यही कहते हैं।

खं वायुमग्निं सलिलं महीं च ज्योतींसि सत्त्वानि दिशो द्रुमादीन्।
सरित्समुद्रांश्च  हरेः  शरीरं  यत्किंच  भूतं  प्रणभेद  नन्यः।

रामानन्य श्री भरत मार्ग में प्रत्येक पथिक को प्रणाम करके बड़ी ही नम्रता से पूछते हैं, क्या आपने हमारे प्रभु के दर्शन किए हैं? वे कहाँ हैं? कुशलपूर्वक तो हैं न? सभी से उन्हें कोई-न-कोई प्रभु की मनहरिणी लीला श्रवण करने को मिलती है।

करि प्रनामु  पूँछहिं  जेहि तेही। केहि  वन  लषनु  रामु बैदेही।।
ते  प्रभु  समाचार सब  कहहीं। भरतहिं देखि जनम फलु लहहीं।।
जे जन कहहिं कुसल  हम देखे। ते प्रिय राम लखन  सम लेखे।।
एहि बिधि बूझत सबहि सुबानी। सुनत  राम  बनवास  कहानी।।

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