धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
प्रभु ने महानाट्य का आयोजन कर डाला- ‘वनगमन’ के रूप में। इसे देवताओं ने भले ही भूभार-हरणार्थ माना हो, पर वास्तविक बात तो कुछ दूसरी ही थी। ‘वीक्षितमेतस्य महाप्रलय:।’ ‘भ्रकुटि बिलास सृष्टि लय होई’ रावणवध के लिये ही वे वन जायें, यह पूर्ण सत्य नहीं। तब फिर क्या कारण है? पूछिये हमारे पारखी भक्तशिरोमणि से। वे कुछ विलक्षण रहस्य खोलना चाहते हैं--
प्रेम अमिअ मंदरु बिरहु भरतु पयोधि गंभीर ।
मथि प्रगटेउ सुर साधु हित कृपासिंधु रधबीर ।।
श्री भरत जी का प्रेम लोगों से अव्यक्त था। उस प्रेम-सुधा को वे छिपाये हुए थे। उसे प्रकट करना प्रभु को अभीष्ट था। यह पयोधि ऐसा नहीं, जो साधारण मंथन से मथा जा सके। तब ‘विरह मन्दर’ की सृष्टि की गयी। निश्चित रूप से यदि वन-गमन की घटना न होती, तो श्री भरत जी के प्रेम को संसार नहीं जान पाता। और ‘राम भगत अब अमिअ अघाहूँ’ का आमन्त्रण भी न प्राप्त होता। तब एक के बाद एक दुर्घटनाओं का एक ताँता लग जाता है।
राज्याभिषेक का साज, कैकेयी की कुबुद्धि, कुयाचना, प्रभु का वन-गमन और महाराज की मृत्यु।
घटनाएँ बड़ी ही भयानक हैं। किसी भी हृदय को व्यथित करनेवाली। पर यह समुद्र-मन्थन की भूमिका थी। इसके बिना अमृत की प्राप्ति असम्भव थी।
महाराज श्री दशरथ के स्वर्ग-गमन के पश्चात् गुरुदेव के आज्ञानुसार दूत श्री भरत जी को लेने गये। उन्हें आज्ञा थी ‘केवल ले आने की’, कोई और समाचार बताना निषिद्ध था। गुरु वशिष्ठ की आज्ञा सुनते ही श्रीगणेश का स्मरण कर वे अवध की ओर प्रस्थान कर देते हैं। हृदय में एक अज्ञात भय और व्यथा समायी हुई है। वायुवेग घोड़ों पर बैठ श्री अवध के निकट पहुँचते हैं?
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