धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
सभासदों ने जिसे देखा था, वह प्रेमसिन्धु के बिन्दु का एक प्रतिबिम्ब मात्र था। उनके प्रेम को कोई समझे, भला ऐसी क्षमता किसमें? कहाँ?
बारात के वाहन सजाने का कार्य श्री भरत जी को सौंपा गया और वह कार्य था भी उनको अत्यन्त प्रिय। प्रभु के वे महाभाग्यवान अश्व, जिन्होंने बार-बार प्रभु के शरीर का सुखद स्पर्श किया है, जो प्रभु के स्नेह-सत्कार द्वारा पालित हुए हैं, उनकी सेवा करना तो श्री भरत जी की नित्यक्रिया का सर्वप्रमुख अंग था और वे अश्व भी तो केवल इन्हीं को देखकर संतुष्ट होते थे। प्रभु के वियोगी श्री भरत ही उनके लिये प्राणप्यारे राघवेन्द्र थे। वही नीलनीरद वपु, वही कमनीय कान्ति - भेद करना भी कठिन हो जाता था।
अश्व सजाये गये और बारात जनकपुर में पहुँच भी गयी। श्री भरत और प्रभु का मिलन हुआ। दोनों आनन्दमग्न हैं। श्री भरत जी की बड़ी इच्छा है कि वे प्रभु के मुखचन्द्र का एक बार दर्शन कर लें। पर नेत्र तो मानो प्रेम, नम्रता और सौशील्य के भार से इतने झुके हुए हैं कि मुख की ओर उठ ही नहीं पाते। एकटक प्रभु के चरण-कमलों पर ही दृष्टि गड़ाये वे खड़े रह गये।
विवाह के पश्चात् ही मातुल-निमंत्रण आता है और प्रभु की इच्छा देखे बिना वे ननु-नच के दीर्घकाल के लिये ननिहाल चले जाते हैं। प्रभु से अलग होना पड़ रहा है, पर भक्त प्रसन्न है वेदना होते हुए भी। अहा! प्रभु की इच्छा पूर्ण करने में उसका त्याग कितना महान् है, इसे तो कोई हृदय वाला ही समझ सकता है। पर कितना मूक बलिदान है यह!
पर लोगों को दृष्टि से ओझल हो गया उनका वह स्नेहबिन्दु भी, जो पत्रिका को सुनकर व्यक्त हुआ था। कौन समझे इस महात्यागी सनेही के गुप्त सनेह को?
प्रभु तो चाहते थे प्रेमामृत को व्यक्त करना। तब उन्होंने उस महानाट्य का आयोजन किया, जिससे वह ‘प्रेम-सुधा’ पूर्ण रूप से प्रकट हो।
राम भगत अब अमिय अघाहूँ ।
कीन्हेउ सुलभ सुधा बसुधाहूँ ।।
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