धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
जलने पर कितनी पीड़ा होती है, यह तो भुक्तभोगी ही जानता है। पर उस पर नमक छिड़कने की कल्पना तो कितनी भयावह है, जिसे सोचकर ही हृदय काँप उठता है। और तब असह्य पीड़ा से उनके मुख से निकल पड़ता है-
पापिनि सबहि भाँति कुल नासा ।
जौ पै कुरुचि रही अति तोही ।
जनमत काहे न मारे मोही ।।
पेड़ काटि तैं पालउ सींचा ।
मीनजिअन नितिबारि उलीचा ।।
हंसबंसु दशरथ जनकु राम लखन से भाइ ।
जननी तूँ जननी भई विधि सन कछु न बसाइ ।।
जब तैं कुमति कुमत जिय ठयऊ ।
खंड खंड होइ हृदय न गयऊ ।।
बर मागत मन भइ नहिं पीरा ।
गरि न जीह मुँह परेउ न कीरा ।।
भूँप प्रतीति तोरि किमि कीन्ही ।
मरन काल विधि मति हरि लीन्ही ।।
बिधिहुँ न नारि हृदय गति जानी ।
सकल कपट अघ अवगुन खानी ।।
सरल सुसील धरम रत राऊ ।
सो किमि जानै तोय सुभाऊ ।।
अस को जीव जन्तु जग माहीं ।
जेहि रघुनाथ प्रानप्रिय नाहीं ।।
भे अति अहित रामु तेउ तोही ।
को तू अहसि सत्य कहु मोही ।।
जो हसि सो हसि मुँह मसि लाई ।
आँखि ओट उठि बैठहि जाई ।।
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