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धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822

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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


यह श्री भरत नहीं, उनके हृदय की दुर्वह व्यथा और व्याकुलता बोल रही है। कुछ लोग श्री भरत चरित के इस अंश को उनके निर्मल यशचन्द्र का धब्बा मानते हैं। मैं भी कहता हूँ वह श्यामता है अवश्य, पर यह श्यामता राम-प्रेम की है। इस श्यामता पर हम सौ-सौ शुभ्र-चन्द्र निछावर करते हैं। इस श्यामता के बिना तो यह यशचन्द्र भक्तों के किसी काम का न होता। श्री हनुमान जी को चन्द्रमा बड़ा प्रियलगा, पर इसलिये नहीं कि वह शुभ्र, शीतल है। उसमें तो उन्हें कुछ और ही दीखा-जिसे देखकर कुछ लोगो को जहाँ उसमें भूमि की छाया या राहु का पद प्रहार दीखा, वहाँ उन्हें अपने श्याम राम दीखे और तभी उसको भक्त शिरोमणि जानकर उन्होंने कहा-

कह हनुमंत  सुनहु प्रभु ससि तुम्हार प्रिय दास ।
तव मूरति विधु उर बसति सोइ स्यामता अभास ।।

मैं कहता हूँ- भरत इसे सुनकर चुप रह जाते, उनकी धार्मिकता व्यक्त हो जाती। यशचन्द्र शुभ्र रहता, पर वह रामप्रेम की श्यामता? श्री जनक जी को रोते देख किसी ने कहा, महाराज को मोह हो गया। जाननेवालों ने कहा- यह दूषण नहीं, भूषण हें ।

मोह मगन मति नहि विदेह की ।
महिमा  सिय  रघुवर  सनेह की ।।

इस प्रेम-पयोध को तैरकर पार कर लेने मे प्रशंसा नही, यहाँ तो डूबना ही पार होना है-

अनबूड़े,  बूड़े तरे,  जे बूड़े  सब अंग ।

तो मैं भी कहता हूं-

क्रोध मगन मति नहि महिमा सिय रघुबर सनेह की ।।

कोई भी प्रेमी ऐसी स्थिति मे शान्त न रहेगा । इस विशेष धर्म के सामने सामान्य धर्म नगण्य है।

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