धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
एक बात और हमारे महाकवि कहते हैं-
प्रेम अमिअ मंदरु बिरहु भरतु पयोधि गंभीर ।
मथि प्रगटेउ सुर साधु हित कृपासिंधु रघुबीर ।।
विरह-मन्दिर से भरत पयोधि का मन्थन हुआ अमृत प्रकट करने के लिये। अमृत प्रकट होने के पूर्व ‘हलाहल’ का प्रकट होना स्वाभाविक है। भले ही, वह विष की ज्वाला काल-जैसी भयावनी प्रतीत हो रही हो, पर उससे कोई नष्ट नहीं हुआ। शंकर जी ने उसे पी लिया और वे नीलकण्ठ अमर हो गये। यह हलाहल प्रकट हुआ और पिया कैकेयी अम्बा ने। वे ही इसको पान करने वाली नीलकण्ठ शंकर हैं। श्री शंकर ने पिया—‘को कृपाल संकर सरिस’ कहकर उनकी लोगो ने प्रशंसा की। कैकेयी अम्बा ने पिया, लोगों ने उनके महत्त्व को नहीं पहचाना पर सुजान प्रभु से तो कुछ छिपा नहीं था। उन्होंने घोषणा की-
दोसु देहि जननिहि जड़ तेई । जिन्ह गुरसाधु सभा नहि सेई ।।
हाँ कैकेयी अम्बा ने अपने लाल राम का कार्य बनाने के लिये ही यह सब कुछ किया था। उसके बदले उन्होंने पाया चिरअपयश, विधवापन और प्राणप्रिय पुत्र से तिरस्कार! बलिहारी! हाँ तो, प्रभु ही भरत-पयोधि के मन्थनकर्ता थे। उन्होंने ‘सुर साधु’ को प्रेमामृत पिलाकर अमर किया और अपनी अम्बा को अमर कर दिया यह ‘कालकूट’ पिलाकर, उन्होंने ‘एका क्रिया द्वयर्थकरी प्रसिद्धा’ का बड़ा ही विलक्षण निर्वाह किया। हम इसमें एक ओर भरत का राम-प्रेम पाते हैं, प्रेमी के लिए लौकिक सम्बन्ध नहीं, उसके एकमात्र ‘सब’ राम ही हैं। तो दूसरी ओर, रामप्रेमी कैकेयी का महात्याग! सच्चे प्रेमी का आदर्श प्रेममार्ग अति कठिन है। वह फल नहीं, शूल का मार्ग है। सम्भव है किन्हीं प्रेमियों पर फूल बरसाये जाते हों, पर शूल-प्रहार भी हो सकता है, उसे सहन कर लेने की शक्तिवाला ही इस पर चल सकता है। निश्चित ही रामायणकाल में सर्वाधिक तिरस्कृत कैकेयी अम्बा थी, पर प्रभु ने कह ही दिया-“जननी कैकेयी को वे ही दोष देते हैं, जिन्होने सत्संग के द्वारा इसका रहस्य नहीं जान लिया है।”
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