धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
कहा जा सकता है, तब फिर कैकेयी जी को कटुवचन कहनेवाले हमारे कवि तथा श्री भरत आदि सभी जड़ हैं। और यह सत्य भी है। अत्यधिक प्रेम में आगे-पीछे सोचने की क्षमता का अभाव होता है। अपने प्रभु को कष्ट में डालने वाले के हृदयगत भावों पर दृष्टि डालें-इतना अवकाश प्रेमी को कहाँ। वह तो प्रत्यक्ष कारण देखता है और अधीर होकर कारण प्रतीत होनेवाले पर बरस पड़ता है। श्री लक्ष्मण जी का चरित्र इसका साक्षी है। महाकवि, श्री भरत, पुरवासी आवेश में जो कहते हैं, वह तो प्रेमियों का हृदय है। पर ‘दोषु देहिं जननिहि जड़ तेई’ तो हम लोगों के लिये । कहीं तटस्थ दष्टि से बाद में विचार करने वाले भी कैकेयी अम्बा को ऐसा न मान लें, यही प्रभु का अभिप्राय है।
लिखते हुए प्रसंग से कुछ दूर हट गया, पर जो कुछ वहाँ श्री भरत ने कहा, वह उनके अनुरूप ही था – एक प्रेमी के अनुरूप। वैसे हम उनके चरित्र की यह विलक्षणता पाते हैं कि वहाँ धर्म और प्रेम एकरूप हो गये हैं – एकार्थक हो गये हैं। पर यहाँ जो अलगाव है, वह मार्गनिर्देश मात्र करता है। यदि प्रेमी के सामने ऐसी विकट परिस्थिति हो, जहाँ साधारण धर्म और विशेष धर्म (भगवत्प्रेम) का एक साथ निर्वाह असम्भव हो जाय, वहाँ प्रेमी का मार्ग स्पष्ट है – राम-प्रेम।
पर उन कठोर वाक्यों को कहते-कहते अन्त में हम देखते हैं वे प्रकृतिस्थ हो जाते हैं। उनकी धार्मिकता और प्रेम एकमेक हो जाते हैं। वे स्वयं ही सब दोष अपने ऊपर ले लेते हैं ‘सारा दोष मेरा ही है’। अदोषदर्शी भरत के चरित्र का कैसा सुन्दर चित्रण इस दोहे में व्यक्त होता है –
राम विरोधी हृदय तें प्रकट कीन्ह विधि मोहि।
मो समान को पातकी बादि कहऊँ कछु तोहि।।
कैसा विलक्षण दैन्य है। उनकी यह विलक्षणता ऐसी है, जो निजी है, जो अन्यत्र मिलनी कठिन है और यही वैलक्षण्य उन्हें अन्यों से ऊपर उठाकर प्रेमाचार्य का पद प्रदान करता है। वह अहंकार जो प्रभु से दूर करता है, उसकी यहाँ पैठ नहीं। वह अहंकार, जिसने देवर्षि नारद को पकड़ लिया, जो श्री भक्तराज हनुमान के हृदय को भी स्पर्श कर सका, इन्हें छू न सका। इसी से हम देखते हैं क्यों प्रभु इनका नाम जप करते रहते हैं, क्यों इनका नाम उन्हें विह्वल बना देता है। तभी कहना पड़ता है –‘भरत भरत सम जानि।’
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