लोगों की राय

धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822

Like this Hindi book 0

भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


इसके पश्चात् ही आती है कुटिलमणि वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर। श्री शत्रुघ्न जो माता के कार्यों से वैसे ही क्षुब्ध थे, सजी-धजी मन्थरा को देखते ही उनकी क्षोभाग्नि भड़क उठती है। चरण प्रहार से वे उसे भूमि पर गिरा देते हैं। मुँह से रक्त निकलने लगता है। सिर फूट जाता है। निश्चित रूप से उस कुटिला के लिए यह दण्ड कम था। फिर जब उसने इतने पर भी ‘करत नीक फल अनइस पावा’ कह दिया तो शत्रुघ्न पुनः उसे घसीटने लगते हैं। भला, लक्ष्मणानुज को कौन शान्त करे। पर ‘दयानिधि भरत’ छुड़ा देते हैं। यहाँ अन्तर स्पष्ट है। श्री शत्रुघ्न के प्रेम और धर्म में यहाँ विरोध हो जाता है और वे स्वभावतः ही प्रेम को प्राधान्य देते हैं। पर भरत का प्रेम और धर्म एकार्थक होकर मन्थरा को छुड़वा देता है। वे ‘दयानिधि’ तो हैं ही, पर इससे भी अधिक ध्यान उन्हें इसका है कि प्रभु को इससे कष्ट होगा। उनकी प्रत्येक क्रिया में प्रभु की इच्छा का ध्यान सर्वप्रथम रहता है। तभी हम उनके विषय में पढ़ते हैं-

जौं न होत जग जनम भरत को। सकल धरमपुर धरनि धरत को।।

कौसल्या पहि गे दोउ भाई से यह प्रसंग समाप्त हो जाता है और तब हमारे समक्ष कौसल्या माता और श्रीभरत के मिलन का करुण दृश्य उपस्थित होता है।

कृश शरीर आभूषणहीन, म्लान अम्बा भरत का नाम सुनते ही दौड़ पड़ती हैं वत्सल गौ की तरह। मन में मिलन की उतकट आशंका होते हुए भी शरीर इतना शक्तिहीन हो चुका है कि वे मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर जाती हैं। भवन चारों ओर करुण विलाप और चीत्कार से भर जाता है। श्री भरत अनुज के साथ दौड़कर अम्बा को उठाते हैं! उनकी इस दशा को देख उनका हृदय शोक में डूब जाता है। वे सोचते हैं, इन सारे अनर्थों का मूल मैं ही तो हूँ। मेरा जन्म ही क्यों हुआ। व्यथाभरी वाणी से बोल उठते हैं –

को त्रिभुवन मोहि सरिस अभागी।
गति असि तोरि मातु जेहि लागी।।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book