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धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822

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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


उसी करुणामयी स्थिति में वे बड़े मार्मिक शब्दों में शपथ लेते हुए कहते हैं कि मुझे यही गति प्राप्त हो, जो बड़े-से-बड़े पातकी को होती है –

जे  अघ  मातु पिता सुख मारै।
गाइ गोठ महिसुर पुर जारे।।
ते  अघ तिय बालक बध कीन्हें।
मीत महीपति माहुर दीन्हें।।
जे पातक उपपातक अहहीं।
करम बचन मन भय कवि कहहीं।।
ते पातक मोहि  होहुँ बिधाता।
जौं यहु होइ  मोर मत माता।।

जे  परिहरि  हरि  हर   चरन, भजहिं भूतगन  घोर।
तेहि कइ गति मोहि देउ बिधि, जौं जननी मत मोर।।

बेचहिं वेदु धरमु  दुहि लेहीं।
पिसुन पराय पाप कहि देहीं।।
कपटी कुटिल कलहप्रिय क्रोधी।
वेद विदूषक विश्व विरोधी।।
लोभी  लंपट  लोलुपचारा।
जे  ताकहिं  परधनु  परदारा।।
पावौं मैं तिन्ह कै गति घोरा।
जौं जननी यहु संमत मोरा।।

इन संदर्भों को पढ़कर कुछ लोग चौंकते हैं। प्रायः इसकी दो प्रकार से आलोचना की जाती है –

1. जानउँ राम कुटिल करि मोही। लोग कहउ गुरु साहिब द्रोही।। का वरदान माँगने वाले श्री भरत अपने को निर्दोष सिद्ध करने के लिए उत्सुक क्यों हैं?

2. क्या उन्हें कौसल्या अम्बा के ऊपर यह विश्वास न था कि वे उन्हें निर्दोष मानती हैं?

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