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धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822

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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


पर विचार से दोनों ही बातें निर्मूल सिद्ध होती हैं। फिर निर्दोष सिद्ध करने का प्रयास क्यों? इस समझने से ही सारी समस्यायें हल हो जाती हैं। कौसल्या माता के हृदय पर इसके पूर्व इतने भीषण और निर्मम आघात लग चुके हैं, जिससे उनका हृदय व्यथासागर में डूब गया है। ऐसी परिस्थिति में ही भरत का आगमन होता है। यदि कहीं श्री कौसल्या माता के हृदय में यह संदेह हो जाय कि वास्तव में श्री भरत की सम्मति से ही यह हुआ है और केवल लोक-प्रदर्शन के लिए ही वह मेरे निकट आया है, तो उनकी बड़ी बुरी स्थिति हो जायेगी, उनको असह्य पीड़ा होगी और ऐसी स्थिति में उनके हृदय पर एक बहुत बड़ा आघात पहुँचेगा, जिसे सम्भव है वे न सहन कर सकें। ऐसी परिस्थिति में श्री भरत जी ने बड़ी ही मनोवैज्ञानिक बुद्धिमत्ता का कार्य किया। उसका लक्ष्य कौसल्या माता के हृदय को शान्त करना था। उनके लिए अपने को निर्दोष सिद्ध करने के सिवा उपाय था ही नहीं। इसलिए इस चेष्टा से उनके माँगे हुए पूर्वोक्त वरदान से कोई विरोध नहीं होता है। यहाँ निर्दोष सिद्ध करने का यह प्रयास निर्दोष सिद्ध करने के लिए न होकर कौसल्या के दुःख भार को लघु बनाने के लिए है।

यहाँ कहा जा सकता है कि, तो क्या कौसल्या माता के चित्त पर उन्हें अविश्वास है? नहीं। श्रीभरत जी का कभी किसी पर अविश्वास नहीं था, पर वे तो अपने दैन्य, सौशील्य के कारण अपने को इतना प्रेमहीन मानते थे कि वे सोच ही नहीं पाते थे कि लोग मुझ पर विश्वास करते होंगे। उनकी विचारधारा का यह अध्ययन करने पर यह स्पष्ट रूप से सिद्ध हो जाता है कि वे यही मानते थे कि कोई भी योग्य व्यक्ति मुझे बुरा ही समझेगा, क्योंकि मुझमें श्रेष्ठ सद्गुण है ही नहीं। सत्य तो यह है कि इतनी महानता के साथ इतना दैन्य अन्यत्र दुर्लभ है। निम्नलिखित चौपाइयाँ भी इसी सत्य का साक्ष्य दो रही है-

राम  लखनु सिय सुनि मम नाऊँ।
उठि जनि अनत नाहि तजि ठाऊँ।।
कपटी  कुटिल  मोहि प्रभु चीन्हा।
ताते  नाथ  संग  नहीं  लीन्हा।।

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