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धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822

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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


सारी प्रजा अनाथ हो गयी है। करुणा और विषाद का समुद्र उमड़ा बह रहा है। उसमें पुरवासी डूबे से हैं। माताओं की स्थिति तो और भी अवर्णनीय है। वहाँ की स्थिति तो ‘धीरजहुँ कर धीरज भागा’ की सूचना देती है। सबकी दृष्टि भरत की और है – सब एक ही आशा में जीवित रहना चाहते हैं। वह राम दरस की लालसा, वही जहाज बनकर उन्हें बचाये हुए हैं, पर वह भी कर्णधार से हीन। कर्णधार कौन है और तब सब एक स्वर से पुकार उठते हैं “भरत”। उनके शब्दों में हृदय को कम्पित कर देने वाली करुणा है। पर श्री भरत के सामने भी तो एक द्वन्द्व है। वे अपने को मल्लाह, एक सेवक के रूप में अर्पित करने को सहर्ष प्रस्तुत हैं। वे तो “संपति सब रघुनायक कै आही” को मानने वाले हैं। पर प्रस्ताव तो ठीक ऐसा ही नहीं है। वहाँ तो मानो कर्णधार को पहले से पुरस्कार का प्रलोभन दिया जा रहा है। न केवल प्रलोभन अपितु पुरस्कृत किया जा रहा है “अवध राज सुराज सिहाहीं” से। भले ही वह पुरस्कार लोगों की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हो, पर एक राम-प्रेमी के लिए वह किस काम का। प्रेमी ने कहा – मैं रोगी हूँ, हृदय जल रहा है पीड़ा से। वैद्य जी बोल पड़े – पर साधारण रोग हो तब न। प्रेममयी ने बड़े करुणाकंठ से एक दिन गाया–

हेरी, म्हे तो प्रेम दिवानी, म्हारो दरद न जाणौ कोय।

सचमुच “भगवतरसिक, की बात रसिक बिना कोउ समझ सकै ना।” वैद्य – महर्षि। पर यह तो ऐसा रोग है जिसकी चिकित्सा वैद्य नहीं रोगी स्वयं कर सकता है। हृदय प्रियतम की वियोगाग्नि में जल रहा है, उससे कहा जाता है तुम राज्य मद का पान करो। पर वैद्य का भला क्या दोष। नाड़ी पकड़ी पर रोग का निदान ही न मिला। लेकिन लोगों की तो श्रृद्धा थी। माने हुए वैद्य थे! कौसल्या माता ने भी उसी सहारे कह दिया –

कौसल्या धरि  धीरजु कहई।
पूत पथ्य गुर आयसु अहई।।

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