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धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822

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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


पर प्रेम राज्य की तो रीति ही निराली है। माना कि वह रोगी है, किन्तु वह सब समझता है, उसे ज्ञान है इस रोग के वास्तविक स्वरूप का और उसकी दवा का। लेकिन वैद्य भी तो हितचिन्तक है, उसका तिरस्कार कैसे हो, फिर यह श्री भरत जी जैसे प्रेमी के लिये कैसे सम्भव था। वैद्य की स्तुति कर दी उन्होंने –

गुरु  विवेक  सागर  जगु जाना। जिन्हहि बिस्व कर बदर समाना।।

हाँ, यह स्तुति है, पर वैद्य जी पर एक मीठा व्यंग्य भी। “बिस्व कर बदर समाना” एक विशिष्ट अभिप्राय रखता है। प्रशंसा ही तो है छोटा-सा बेर जैसे निष्प्रयास मुट्ठी में, इसी तरह समग्र विश्व गुरु जी के कर-कमलों में। पर उसके लिए बेर की उपमा क्यों, आँवला भी तो छोटा है, फिर मानस में ही बालकाण्ड से महर्षियों की प्रशंसा में यही आँवले की उपमा दी भी गयी है।

जानहि तीनि काल निज ज्ञाना।
करतलगत  आमलक  समाना।।

अन्तर तो अवश्य है बुद्धिमानों के लिये। आयुर्वेदकों से पूछिये – “धात्रीफलं सदापथ्यं कुपथ्यं बदरीफलं” बेर कुपथ्य है, आँवला पथ्य है। वैद्यों को सुन्दर संकेत है। पूत पथ्य गुरु आयसु अहई का इससे अधिक यथार्थ मधुर उत्तर सम्भव भी तो नहीं है। वैद्य अपनी त्रुटि समझ जाते हैं, कहाँ आ फँसे प्रेम-राज्य में। लोग उलझन में थे, पर किया क्या जाय। पीड़ा से कराह रहे थे, पर प्रेमी ने बता ही तो दिया। उसका उत्तर तो निश्चित ही है। “मीरा की तब पीर मिटै जब वैद सांवलिया होय।”

आपनि दारुन दीनता, कहऊँ  सबहि  सिरुनाइ।
देखे बिनु रघुनाथ पद, जिअकै जरनि न जाइ।।

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