धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
और ‘प्रातःकाल चलि हउँ प्रभु पाहीं,’ के निर्णय ने तो चमत्कार ही कर दिया। विषम वियोग-संतप्त पुरवासी आग्रत हो गये इस महान् मन्त्र के उच्चारण मात्र से। भैया भरत के जयनाद से सभामण्डप गूँज उठा। एक बार फिर लोगों का म्लान मुख तेज से चमक उठा। औषधि का नाममात्र सुन उनका अंग-अंग उल्लसित हो उठा। बलिहारी है रोगी की। लोग प्रेममयी अश्रुसंयुक्त आँखों से देख रहे थे अपने भरत को। जिन लोगों ने भरत पर संदेह किया था, वे भी आँसू बहाते हुए अपने पापतापों को बहाने की चेष्टा कर रहे थे। उस प्रेममय दिव्य स्थिति का वर्णन महाकवि की भाषा में पढ़िये –
भरत बचन सब कहँ प्रिय लागे। राम सनेह सुधाँ जनि पागे।।
लोग बियोग बिषम बिष दागे। मंत्र सबीज सुनत जनु जागे।।
मातु सचिव गुर पुर नर नारी। सकल सनेहँ बिकल भए भारी।।
भरतहिं कहहिं सराहि सराही। राम प्रेम मूरति तनु आही।।
तात भरत अस काहे न कहहू। प्रान समान राम प्रिय अहहू।।
जो पावँरु अपनी जड़ताई। तुम्हहि सुगाइ मातु कुटिलाई।।
सो सठु कोटिक पुरुष समेता। बसिहि कलप सत नरक निकेता।।
अहिअघ अवगुन नहिं मनि गहई। हरइ गरल दुख दारिद दहई।।
अवसि चलिअ बन रामु जहं, भरत मंत्र भल कीन्ह।
सोक सिंधु बूड़त सबहिं, तुम्ह अवलंबनु दीन्ह।।
सभी घर जाकर चलने के लिए सन्नद्ध हो रहे हैं। रामदर्शन की लालसा में समग्र सुध-बुध भूले हुए श्री भरत लौटे, पर उनके हृदय में एक बड़ी चिन्ता है। सभी तो उत्सुक हैं राघवेन्द्र के दर्शनार्थ, पर ‘स्व’ सुख तो प्रेमी का लक्षण नहीं। उन्हें ज्ञात है नगर की एक-एक वस्तु पर प्रभु का कितना स्नेह है। उनका प्रभु वियोग से क्षीणकाय घोड़ों का बार-बार ध्यान हो आता है। उनके द्वारा पालित पशु-पक्षी सब उन्हें प्रिय तो हैं, यदि हम दर्शन की लालसा में उन्हें विस्मृत कर दें तो कितना बड़ा अपराध होगा यह। धन्य है श्री भरत के प्रेम की रीति। सम्भव है किसी को सन्देह हो कि राज्य पर ममत्व न होता, तो इतने प्रबन्ध की क्या आवश्यकता थी। तो किया करें लोग सन्देह। प्रेमी अपने मार्ग पर जा रहा है उसे स्वसुख का नहीं, प्रियतम का, उनकी वस्तुओं का ध्यान है। यद्यपि साधारण रीति से विचार करने पर दर्शन विह्वल लोगों की स्थिति श्रेष्ठ प्रतीत होती है, पर गहराई में उतरते ही जान पड़ता है दोनों में अन्तर है – महान अन्तर है। विह्वलता में प्रेम है सही, पर वहाँ आनन्द का उपभोग और स्व-सुख की स्मृति ही अधिक है, किन्तु ‘तत्सुखे सुखित्त्वम्’ का सच्चा स्वरूप तो श्री भरत में ही दृष्टिगत होता है। वास्तव में उनकी यह प्रेममयी विचारधारा प्रेम-सिद्धान्त का एक अमूल्य अंग है।
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