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धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822

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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


भरत जाइ घर कीन्ह बिचारू। नगर  बाजि गज भवन  भंडारू।।
संपति सब रघुपति कै आही। जों बिनु जतन चलौं तजि ताही।।
तो  परिनाम न  मोरि  भलाई। पाप  सिरोमनि  साईं  दोहाईं।।
करइ  स्वामि हित  सेवकु सोई। दूषन कोटि  देइ किन  कोई।।

और तब इस महान् आदर्श को दृष्टिगत रखककर राक्षसों को नियुक्त करते हैं। वास्तव में प्रेमतत्त्व का समझऩा ही अत्यन्त कठिन है। उसका निगूढ़ रहस्य तो श्री प्रेमाचार्य भरत जी ही जानते हैं, पर जो कुछ समझ में आता है उतना ही हमारे लिए बहुत अधिक है। वस्तुतः उस प्रेमामृत का एक बिन्दु भी अमरत्व प्रदान करने में समर्थ है।

‘संपति सब रघुपति कै आही’ : वस्तु को अपना स्वीकार करने के पश्चात् ही उसके त्याग का प्रश्न आता है। जहाँ त्याग उत्तम धर्म है, वहाँ उसके साथ एक अवश्यम्भावी भय भी है। मनुष्य त्याग के साथ ‘त्यागी’ का अहं भी ले लेता है। त्याग जैसा धर्म भी अहंकार-युक्त होने पर पतन का कारण बन जाता है। जिन लोगों ने सब कुछ छोड़ कर प्रभु के पास जाने का निर्णय किया था, वे भावुक थे अवश्य, किन्तु सम्पत्ति को अपनी मानते थे। इसीलिए उनको अधिकार था यह निर्णय करने का कि हम यह सब छोड़कर प्रभु के निकट जायें। इसे हम समर्पण कह सकते हैं। पर सच्चे भक्त की दृष्टि में इस समर्पण का कोई अर्थ ही नहीं। समर्पण अपनी वस्तु का किया जाता है, पर जब सब प्रभु का ही है तब समर्पण कैसा? अवश्य ही समर्पण और त्याग तस्करता से श्रेष्ठ हैं। प्रभु के स्वामित्व को भूलकर अपने लिए विषयों का प्रयोग तस्करता है। उसकी अपेक्षा प्रभु के लिए समर्पण – त्याग श्रेयस्कर है। पर यह भी एक भोलापन ही है, जब हम अपने को या अपनी वस्तु को समर्पित करते हैं। समर्पित का समर्पण कैसा? भक्त यह सोचकर चकित हो जाता है और तब वह प्रभु से ही पूछ बैठता है –

किं  नु  समर्पयामि  ते

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