धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
यही कारण है कि लोगों के मुख से अपने त्याग वैराग्य की प्रशंसा सुनकर महाभाग भरत जी लज्जित हो जाते हैं। वे बहुत सोचकर भी निर्णय नहीं कर पाते कि उन्होंने त्याग कब किया। लोग भले ही अवधराज को श्री दशरथ का अथवा भरत का राज्य कहें, किन्तु भरत के लिये वह–
संपति सब रघुपति कै आही।
इसलिये अपनी दृष्टि में वे त्यागी है ही नहीं और इसलिये उनका दैन्य नाटकीय न होकर पूर्ण सत्य है। अपनी झूठी प्रशंसा सुनकर लज्जित होना स्वाभाविक है। उनके संकोच का रहस्य समझने के लिए उनके दृष्टिकोण को ध्यान में रखना आवश्यक है।
समग्र पुरवासियों सहित श्री भरत जी चित्रकूट की ओर चले। सभी सुसज्जित वाहनों पर आसीन होकर जा रहें किन्तु-
बन सिय रामु समुझि मन माहीं। सानुज भरत पयादेहिं जाहीं।।
यही नहीं, अन्य लोगों के लिये स्वयं श्री भरत ने ही वाहनों की व्यवस्था की है। यही है मानस का सच्चा आदर्श। आज तो हम स्वयं उच्छृंखल जीवन व्यतीत करते हुए दूसरों से पूर्ण संयम की आशा रखते हैं, पर सच्चा भक्त संयम का पालन स्वयं करता है, दूसरों पर हठात् उसे लादना नहीं चाहता। श्री भरत चरित्र इसका साक्षी है। उपदेश या शासन से नहीं, अपने जीवन में चरितार्थ करके ही हम दूसरों को संयमित बना सकते हैं।
श्री भरत जी को पापतापविहीन पैदल चलते देख सभी लोग वाहनों को छोड़ देते हैं –
देखि सनेहु लोग अनुरागे। उतरि चले हय गज रथ त्यागे।।
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