धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
प्रेम अमिय मन्दर विरह....
कहते हैं प्रभु मूरति कृपामयी है। पर उनकी कृपामयी मूर्ति भी कभी ऐसी भयावह वेश बनाकर आती है कि हृदय धीरज खो बैठता है। अन्तिम परिणाम को देखकर ही हम उसकी कठोरता के आवरण में छिपी हुई करुणा को पहचान सकते हैं।
कहाँ तो अयोध्या का श्रृंगार किया जा रहा था। तोरण बन्दनवार और कदली स्तम्भ से अवध का हर भवन सजाया जा रहा था। लोगों के उल्लास का क्या कहना। कल उनके हृदय-सर्वस्व राम युवराज पद पर अभिषिक्त होंगे। आनन्द के अतिरेक में समय जैसे बीत ही न पा रहा हो, कब होगा वह कल! सबके हृदय प्रतीक्षारत हैं। स्वर्ण सिंहासनासीन युवराज राम की कल्पित मूर्ति ही तब तक उनके हृदय में सुशोभित हो रही है। इस मांगलिक समाचार को सुनाने वाले दास-दासियों की आज बन आई है। बहुमूल्य पुरस्कार देने में आज माताओं में जैसे होड़ लग गई हो। आज उनकी मनोरथ-लता फलित होने जा रही है।
पर जिन तक यह समाचार पहुँच न पाया, वे हैं कैकेयी अम्बा। क्यों? यह दीर्घ प्रश्न है। क्या सचमुच ही इसके पीछे कोई षडयन्त्र था।? भरत को इस अवसर पर वापस न बुलाना भी इसी तर्क की पुष्टि करता है। कहा जाता है कि कैकेयी को अर्पित करते हुए महाराज कैकय ने यह वचन लिया था कि मेरी पुत्री से उत्पन्न पुत्र ही राज्य का उत्तराधिकारी होगा। इसे स्वीकार कर लेने पर तो महाराज श्री दशरथ का चरित्र ऐसे धरातल पर आ जाता है जब उनका समग्र कार्य कठोर आलोचना का विषय बन जाता है। पर यदि ऐसा वचन दिया गया था, तो मन्थरा या कैकेयी के वार्तालाप में एक बार भी इसका स्मरण न किया जाना आश्चर्यजनक ही है। मन्थरा की यह सूचना क्या यथार्थ सत्य है कि चौदह दिन से राज्याभिषेक का समारम्भ चल रहा था। पक्ष-विपक्ष में बहुत से तर्क-वितर्क किए जा चुके हैं। फिर भी जिस रूप में घटना-क्रम घटित हुआ, उसकी कड़ियों को जोड़ कर इस रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है।
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