धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
प्रमाणों को दृष्टिगत रखकर यह मानना पड़ता है कि कोई ऐसा वचन दिया गया था। पर स्वयं महाराज श्री दशरथ के इस वचन से मुकरने का प्रश्न न था। वस्तुतः उस वचनबद्धता से कैकेयी अम्बा को जो अधिकार प्राप्त हुआ था, उसका परित्याग भी माँ ने स्वयं कर दिया था। राम के प्रति कैकेयी अम्बा का उत्कृष्ट स्नेह निर्विवाद वस्तु है। “राज्य राम को दिया जाय भरत को नहीं” यह स्वयं कैकेयी का आग्रह था। पचीस वर्षीय राम के विषय में कैकेयी अम्बा और महाराज श्री दशरथ के बीच इस प्रश्न पर वार्तालाप न हुआ हो यह असंभव था। अतः राम के युवराज पर अभिषिक्त होने का समाचार सुनकर उन्हें कोई अनोखापन नहीं लगता। अपितु वे आह्लाद से भर उठती हैं। मन्थरा को पुरस्कार देने के लिए प्रस्तुत होती हैं, पर फिर यह लगता है कि इस मांगलिक समाचार की तुलना में कौन-सी वस्तु दी जाय – वे सोच ही नहीं पातीं। अतः समाचार की तुलना में पुरस्कार के चुनाव का भार वे मन्थरा पर ही छोड़ देती हैं।
राम तिलकु जौं साँचेहुँ काली। देउँ मागु मन भावत आली।।
“मन्थरे! यह समाचार अतुलनीय है। कोई वस्तु देकर इसकी मर्यादा को मैं नष्ट नहीं करना चाहती। अतः एक ही अंश में तुलना हो सकती है। तुमने मेरा अभीष्ट समाचार मुझे सुनाया है अतः बदले में मैं भी तुम्हारा अभीष्ट पूर्ण करूँ।” यह था अम्बा का भावना भरा दृष्टिकोण।
आगे चलकर महाराज श्री भी कैकेयी से यही कहते हैं : भामिनि भयउ तोर मन भावा। घर घर नगर अनंद बधावा।। अतः राम को युवराज पद पर अभिषिक्त करने का प्रस्ताव कैकेयी अम्बा का था। स्वेच्छा से उन्होंने अपने अधिकार का परित्याग किया था। जहाँ तक श्री भरत का प्रश्न था उनका व्यक्तित्व विवाद से परे था। वे स्वयं के लिए स्वप्न में भी उस स्थान पर बैठने की कल्पना नहीं कर सकते, जो उनकी दृष्टि में उनके आराध्य राम का है। अतः भरत को न बुलाने में आशंका का कारण केवल “भरत के ननिहाल के लोगों का क्या दृष्टिकोण होगा” – यह दुविधा जान पड़ती है। आगे चलकर कैकेयी अम्बा ने उस प्राचीन वचन का स्मरण भी इसीलिए नहीं कराया, क्योंकि वे स्वयं ही उस अधिकार को छोड़ चुकी थीं। और इसीलिए उन्हें भरत के राज्याभिषेक के लिए दो वरदान की थाती का प्रयोग करना पड़ा।
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