धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
( २ )
प्रभु की परम पुनीत पत्रिका लेकर दूत पावन रामपुर में पधारे । श्री दशरथ जी आनन्द-विभोर अपने लाड़ले लाल का कुशल-मंगल पूछने में व्यस्त थे। उसी समय किसी ने आकर भैया भरत से यह मंगलमय संवाद सुनाया। उस समय वे बालकों के साथ क्रीड़ा में निमग्न थे-
‘खेलत रहे तहाँ सुधि पाई’
आश्चर्य! महान् आश्चर्य!! प्रिय वियोग और क्रीड़ा! भला राम से पृथक् होकर वे खेल में कैसे संलग्न थे। पर सचमुच वे खेल में ही तो संलग्न थे।
उनका खेल साधारण प्राकृत बालकों जैसा न होकर प्रेमियों-जैसा था। प्रेमी अपने प्रियतम के वियोग में उनकी ही लीलाओं का अनुकरण कर अपने व्यथित हृदय को सान्त्वना प्रदान करने की चेष्टा करते हैं। श्री काकभुशुण्डि जी ने भी अपनी बाल्यावस्था की इसी स्थिति की ओर संकेत किया है-
खेलउँ तहूँ बालकन मीला । करउँ सकल रघुनायक लीला ।।
प्रेममूर्ति गोपियों ने भी रासमण्डल से भगवान श्रीकृष्ण के अन्तर्धान हो जाने पर ऐसा ही किया था।
इत्युन्मत्तवचो गोप्य: कृष्णान्वेषणकातराः ।
लीला भगवतस्तास्ता हयचक्रुस्तदात्मिकाः ।।
श्रीकृष्णचन्द्र की खोज में व्याकुल हुई गोपियाँ इस प्रकार उन्मत्तों के समान प्रलाप करती हुई तद्रूप होकर भगवान की लीलाओं का अनुसरण करने लगीं।
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