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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा

राजनिष्ठा और शुश्रूषा


शुद्ध राजनिष्ठा जितनी मैंने अपने में अमुभव की हैं, उतनी शायद ही दूसरे में देखी हो। मैं देख सकता हूँ कि इस राजनिष्ठा का मूल सत्य पर मेरा स्वाभाविक प्रेम था। राजनिष्ठा का अथवा दूसरी किसी वस्तु का स्वांग मुझ से कभी भरा ही न जा सका। नेटाल ने जब मैं किसी सभा में जाता, तो वहाँ 'गॉड सेव दि किंग' (ईश्वर राजा की रक्षा करे ) गीत अवश्य गाया जाता था। मैंने अनुभव किया कि मुझे भी उसे गाना चाहिये। ब्रिटिश राजनीति में दोष तो मैं तब भी देखता था, फिर भी कुल मिलाकर मुझे वह नीति अच्छी लगती थी। उस समय मैं मानता था कि ब्रिटिश शासन और शासको का रुख कुल मिलाकर जनता का पोषण करनेवाला हैं।

दक्षिण अफ्रीका में मैं इससे उलटी नीति देखता था, वर्ण-द्वेष देखता था। मैं मानता था कि यह क्षणिक औऱ स्थानिक हैं। इस कारण राजनिष्ठा में मैं अंग्रेजो से भी आगे बढ़ जाने का प्रयत्न करता था। मैंने लगन के साथ मेंहनत करके अंग्रेजे के राष्ट्रगीत 'गॉड सेव दि किंग' की लय सीख ली थी। जब वह सभाओ में गाया जाता, तो मैं अपना सुर उसमें मिला दिया करता था। और जो भी अवसर आडम्बर के बिना राजनिष्ठा प्रदर्शित करने के आते, उनमे मैं सम्मिलित होता था।

इस राजनिष्ठा को अपनी पूरी जिन्दगी में मैंने कभी भुनाया नहीं। इससे व्यक्तिगत लाभ उठाने का मैंने कभी विचार तक नहीं किया। राजभक्ति को ऋण समझकर मैंने सदा ही उसे चुकाया हैं।

मैं जब हिन्दुस्तान आया था तब महारानी विक्टोरिया का डायमंड जुबिली (हीरक जयन्ती) की तैयारियाँ चल रही थी। राजकोट में भी एक समिति बनी। मुझे उसका निमंत्रण मिला। मैंने उसे स्वीकार किया। उसने मुझे दम्भ की गंध आयी। मैंने देखा कि उसमें दिखावा बहुत होता हैं। यह देखकर मुझे दुःख हुआ। समिति में रहने या न रहने का प्रश्न मेरे सामने खड़ा हुआ। अन्त में मैंने निश्चय किया कि अपने कर्तव्य का पालन करके संतोष मानूँ।

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