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विजय, विवेक और विभूति

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :31
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9827

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विजय, विवेक और विभूति का तात्विक विवेचन


राम-रावण युद्ध में कई दिन बाद इन्द्र ने अपना (वाहन) रथ भेजा और श्रीराम बड़ी प्रसन्नता से उस रथ पर बैठ गये। युद्ध के प्रारम्भ में क्यों नहीं भेजा? इसके पीछे इन्द्र की दो मनोभावनाएँ हैं। इन्द्र की ही नहीं, समाज में जितने देवता या देव-मनोवृत्ति के लोग होते हैं वे यों तो पुण्य के पक्षपाती हैं, परन्तु वे शंकालु होते हैं। इन्द्र के मन में यह शंका है कि कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि रावण ही जीत जाय। वे सदा रावण से हारते ही रहे हैं, इसलिए उनके लिए यह कल्पना करना कठिन होता है कि रावण को कोई हरा सकता है।

देवताओं के मन में श्रीराम के ईश्वरत्व का ज्ञान सदा नहीं होता, क्योंकि श्रीराम की मनुष्य-लीला को देखकर वे उनके ईश्वरत्व को भूल जाते हैं। इन्द्र के मन में आशंका हैं कि कहीं हमने प्रारम्भ में ही रथ भेज दिया और रावण की जीत हो गई तो फिर हमारी क्या दुर्दशा होगी? इसलिए रथ भेजने में विलम्ब किया। जब इन्द्र ने यह देखा कि बिना रथ के भी जब श्रीराम की विजय हो रही है तब इन्द्र को लगा कि अब रथ न भेजना मूर्खता होगी, श्रीराम की विजय के इतिहास में हमारा नाम नहीं लिया जायेगा, इसिलए रथ भेज देना ही ठीक है।

होशंगाबाद में एक नवयुवक ने एक प्रश्न इस प्रसंग में मेरे सामने रखा कि यदि राम के स्थान पर मैं होता तो लात मारकर रथ लौटा देता कि अब मुझे रथ की कोई अवश्यकता नहीं है अपना रथ अपने पास ही रखे। मैंने कहा कि भगवान् राम और आप में यही अन्तर है। अगर भगवान् भी शरण में आने वाले व्यक्ति के पूर्वकृत् कर्मों का लेखा-जोखा करने लगें तो फिर बिरले ही व्यक्ति भगवान् की शरणागति के अधिकारी हो पायेंगे। भगवान् की करुणा तो यही है कि वे यह नहीं पूछते कि अभी तक क्यों नहीं आये? महत्त्व इसका है कि आज तो यह व्यक्ति आ गया, यदि इसी क्षण में इस मनोवृत्ति का उदय हो गया है तो प्रभु घोषणा करते हैं कि –

जौं   नर  होइ  चराचर  द्रोही।
आवै  सभय  सरन तकि मोही।।
तजि मद मोह कपट छल नाना।
करऊँ  सद्य तेहि साधु समाना।। 5/47/3

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