नई पुस्तकें >> विजय, विवेक और विभूति विजय, विवेक और विभूतिश्रीरामकिंकर जी महाराज
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विजय, विवेक और विभूति का तात्विक विवेचन
भगवान् की यही करुणा है। यह ठीक है कि राम को रथ की आवश्यक नहीं थी, वे बिना रथ के ही रावण को जीत लेते, लेकिन यदि वे इन्द्र के रथ को लौटा देते तो इसका अर्थ होता है कि इऩ्द्र के अहंकार का उत्तर अहंकार से दिया गया। भगवान् राम ने रथ स्वीकार करके यह बताया कि मनुष्य में जिस क्षण में सद्वृत्ति का उदय हो, सद्भाव और विवेक का उदय हो और वह अपनी वस्तुएँ भगवान् के प्रति समर्पित करे, वही क्षण धन्य है।
इऩ्द्र का रथ पुण्य का रथ है, धर्म का रथ है क्योंकि इन्द्रपद प्राप्त ही होता है, पुण्य और धर्म के परिणामस्वरूप। एक तथ्य ध्यातव्य है कि इसी रथ पर बैठकर इन्द्र ने कई बार रावण से युद्ध किया, पर सर्वदा हारा। उसी रथ को उसने भगवान् के पास भेजा। यह बड़े महत्त्व का संकेत सूत्र है कि सद्गुणों और पुण्य के द्वारा कोई व्यक्ति दुर्गुणों और पापों को पूरी तरह मिटा सकता है या हरा सकता है क्या? अर्थात् नहीं। इन्द्र की और इन्द्र के रथ की जो पराजय है, वह इसी सत्य को प्रकट करने वाली है कि संसार के सभी पुण्यात्मा यह समझते हैं कि पुण्यों का उद्देश्य जीवन में अधिक से अधिक भोगों को पा लेना ही है, स्वर्ग को प्राप्त कर लेना ही है और तब हम स्वाभाविक रूप से स्वर्ग और भोगों को ही प्राप्त कर सकेंगे, रावण पर विजय नहीं। तब कोई कह सकता है कि पुण्य और धर्म व्यर्थ है।
यहाँ संकेत यह है कि पुण्य और धर्म तथा उसका रथ जब रावण को परास्त करने की चेष्टा करता है तो पराजित होता है, पर वही रथ जब भगवान् की सेवा में अर्पित कर दिया जाता है तो उस रथ पर इन्द्र के स्थान पर भगवान् विराजमान हो जाते हैं तो उसी रथ पर बैठकर वे रावण का वध करते हैं। इसका अर्थ यह है कि हम अपने सत्कर्मों को, पुण्यों को तथा धर्म को भगवान् के प्रति समर्पित करें और भगवान् उसे स्वीकार करके उसे धन्य बनायें। भगवान् को इन सबकी अपेक्षा नहीं है। रथ धन्य हो, इन्द्र धन्य हो, इसलिए भगवान् श्रीराम उस रथ को स्वीकार कर लेते हैं। कोई यह तर्क कर सकता है कि इन्द्र ने यह तो कहा नहीं कि मुझे डर लग रहा है, पर श्रीराम ने भी तो किसी से यह नहीं कहलवाया कि रथ भेज दीजिए!
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