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विजय, विवेक और विभूति

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :31
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9827

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विजय, विवेक और विभूति का तात्विक विवेचन


इन्द्र ने कहा कि जब श्रीराम केवट से नाव माँग सकते हैं तो क्या मुझसे रथ नहीं माँग सकते हैं? यह बड़ा सांकेतिक प्रसंग है। वस्तुतः भगवान् श्रीराम दोनों का सदुपयोग करते हैं। केवट सबसे नीचे है और देवता सबसे ऊपर हैं। केवट में दीनता-हीनता है और केवट यह समझता है कि मैं समाज में सबसे अभागा हूँ और इन्द्र में पुण्य का अभिमान है। भगवान ने दोनों का सदुपयोग किया। जब तब दीनता-हीनता बनी हुई है या जब तक  पुण्याभिमान बना हुआ है तब तक धन्यता नहीं आयेगी। केवट से जब श्रीराम ने नाव माँगी तो वह बोला कि मैं नाव नहीं लाऊँगा, मैं आपका मर्म समझता हूँ। कौन-सा मर्म है? मर्म यही है कि जिसे केवट जानता है कि श्रीराम के सामने नाव की समस्या नहीं है। श्रीराम तो आये हैं केवट को बड़प्पन देने के लिए, उसकी दीनता-हीनता को मिटाने के लिए। पैर धोने के बाद जब केवट ने गंगा पार उतार दिया और भगवान् जब उतराई देने लगे तो केवट बोला –

नाथ आजु में काह न पावा।
मिटे दोष दुख दारिद दावा।। 2/101/3

भगवान् ने केवट से गंगाजी के किनारे आकर यह नहीं कहा कि जो माँगना हो वह माँग लो। उल्टे प्रभु ने स्वयं याचक बनकर नाव की याचना की। इससे केवट के जन्म-जन्मान्तर की दीनता मिट गयी, क्योंकि केवट को लगा कि जब सारे संसार को देने वाला ईश्वर आज मुझसे माँग रहा है तो मुझसे बड़ा कोई नहीं। दूसरा संकेत यह है कि गंगाजी भक्ति की धारा हैं, नौका तो दैन्य की नौका है। नौका यदि हलकी नहीं होगी तो नदी में डूब जायेगी। दैन्य ही मानो हलकापन है। केवट के माध्यम से मानो भगवान् जीव को यह आश्वासन देते हैं कि यदि तुम्हारे पास दैन्य है तो तुम चिन्ता मत करो। तुम्हारे दैन्य की मुझे बड़ी आवश्यकता है। तुम्हारे दैन्य के आधार पर ही मैं भक्ति की गंगा को पार करूँगा। केवट के दैन्य को प्रभु ने महत्त्व दिया, सम्मान दिया और उसके दैन्य का सदुपयोग करते हुए उसको धन्य बनाया। केवट को श्रेष्ठतम बना दिया।

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