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विजय, विवेक और विभूति

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :31
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9827

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विजय, विवेक और विभूति का तात्विक विवेचन


इन्द्र में पुण्य का अभिमान है और जब इन्द्र ने रथ भेजा तो मानो अपनी श्रेष्ठता का अभिमान छोड़ दिया और भगवान् उसे भी स्वीकार करते हैं। यदि हमारे जीवन में दैन्य है तो दैन्य भी प्रभु को समर्पित होना चाहिए और यदि पुण्य का अभिमान है तो उस अभिमान को छोड़कर प्रभु की सेवा में यदि कोई समर्पित होता है तो उसका सदुपयोग प्रभु के चरित्र में होता है। यही ईश्वर का ईश्वरत्व है और यही उसकी करुणा है। जब युद्ध समाप्त हुआ और इन्द्र ने आकर पूछा कि मैं क्या सेवा करूँ? और भगवान् ने वानरों को जीवित करने के लिए कहा तो क्या भगवान् ने अपने संकल्प मात्र से उनको जीवित नहीं कर सकते थे, पर प्रभु ने इन्द्र से कहा कि अमृत की वर्षा करो और उससे सब बन्दर जीवित हो गये।

देवता तो अमृत का सेवन सदैव करते ही रहते हैं, परन्तु अमृत का सेवन करके वे भोगों में ही तो लगते हैं। अमृत का उपयोग भोगों के सेवन में ही तो होता है, पर भगवान् ने कहा कि आज तुम अमृत का सदुपयोग करो और वह सदुपयोग यही है कि इस युद्ध में जो सद्गुण मृतप्राय हो गये हैं उनको जीवनदान मिले। इन्होंने मेरी सेवा के लिए प्राण अर्पित किए हैं, इसलिए इनको जीवित कर दो। इस प्रकार से इन्द्र के अमृत का सदुपयोग हुआ और इन्द्र के रथ का भी सदुपयोग हुआ। यह देवताओं की श्रेष्ठता का चित्रण है। दूसरी ओर देवताओं की दुर्बलता पर कटाक्ष करना भी गोस्वामीजी नहीं भूलते। यही मनोवृत्ति देवताओं की बार-बार पराजय का कारण बनती है –

आये  देव  सदा  स्वारथी।
बचन कहहिं जनु परमारथी।। 6/109/2

स्तुति ऐसी करते हैं मानो परमार्थी हों, परन्तु हैं ये सदा स्वार्थी। संकेत यह है कि वाणी से हम कितनी भी परमार्थ की भाषा बोलें, यदि उसके पीछे हमारा स्वार्थ ही है तो उसका क्या महत्त्व है? देवता अपने वाहनों पर बैठकर जब स्वर्ग की ओर चले गये तो गोस्वामीजी ने अगला वाक्य लिखा –

देखि सुअवसर प्रभु पहिं आयउ संभु सुजान। 6/ 114क

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