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कुमुदिनी (हरयाणवी लोक कथाएँ)

नवलपाल प्रभाकर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9832

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ये बाल-कथाएँ जीव-जन्तुओं और बालकों के भविष्य को नजर में रखते हुए लिखी गई है

जी आपने ठीक पहचाना। मैं यहां का नहीं हूं। मेरा नाम हजारी प्रसाद है। गौतम की मां का रुदन मुझसे देखा नहीं गया। इसलिए मैं उसके बेटे गौतम की जगह खुद यहां आया हूं।

राजा ने कहा- कल फिर बुढिया के बेटे गौतम की बारी आयेगी। आज तो तुमने उसे बचा लिया। कल कौन उसे बचायेगा?

यह सुनकर हजारी प्रसाद बोला - ऐसी नौबत ही नहीं आयेगी। मैं इसकी तह तक जाकर उस शैतान का खात्मा करके ही लौटूंगा। आप भगवान से प्रार्थना करें कि मैं आपकी बेटी को भी उस शैतान के चंगुल से बचा सकूं।

राजा ने कहा- यदि तुम उस शैतान को खत्म कर दोगे और मेरी बेटी को नींद से निजात दिला दोगे तो मैं शपथ खाता हूं कि मैं अपनी बेटी मृगनयनी की शादी तेरे साथ ही कर दूंगा और अपने राज्य का आधा भाग भी तुझे उपहार स्वरूप दे दूंगा।

यह सुनकर हजारी प्रसाद ने अन्दर जाने की राजा से आज्ञा ली।

जब हजारी प्रसाद अन्दर गया तो अन्दर घुप अंधेरा था। हजारी प्रसाद ने टटोलते हुए वहां पर एक मशाल ढूंढी पत्थरों को टकराकर मशाल जलाई। कुछ रोशनी हुई। उसमें विषयाबाई को देखा तो वह उस पर आसक्त हो गया। वह लड़की निद्रा में थी, मगर ऐसी लग रही थी कि जैसे उठकर वह अभी उससे बात करेगी। वह बहुत ही सुन्दर थी। अप्सरा भी उसके आगे फीकी लगें। वाकई वह बहुत ही सुन्दर थी। हजारी प्रसाद उसके निकट जाकर सोने को हुआ तो उसके दिमाग में हुण्डी पर लिखे अंतिम शब्द घूमने लगे- जागेगा सो पायेगा और सोयेगा वो खोयेगा। यह सोचकर मशाल वाले कोने में जाकर बैठ गया।

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