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कुमुदिनी (हरयाणवी लोक कथाएँ)

नवलपाल प्रभाकर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9832

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ये बाल-कथाएँ जीव-जन्तुओं और बालकों के भविष्य को नजर में रखते हुए लिखी गई है

कुंडी खुलते ही गीदड़ ने पहले तो उस भूरे बच्चे को खाया बाद में काने बच्चे को छोड़कर बाकी सभी बच्चों को भी उसने खा लिया और निकल गया।

जब कुछ देर पश्चात जब लोभा वापिस आई और दरवाजे पर आकर बोली- गुड़ से लिपूं चावलों से लिपूं खोलिए मेरे भूरे बच्चे। यह सुनकर उस काने बच्चे ने क्रोध में भरकर जवाब दिया- खुले हैं, तेरे भूरे बच्चे और अन्य चार बच्चों को तो गीदड़ खा गया।

लोभा यह सुनते ही दौड़ी-दौड़ी एक खाती के पास गई और बोली- खाती भाई एक मूसल बना दे। खाती ने मूसल बना दिया।

जब लोभा उस मूसल को लेकर वन के मध्य बने तालाब के एक किनारे पर जा बैठी। सांय के समय जो भी गीदड़ वहां पानी पीने के लिए आता उसी से कहती- गीदड़ भाई तुमने मेरे बच्चे खाए हैं। सभी मना कर देते। अन्त में एक गीदड़ आया जिसका पेट भी फूला हुआ था। उसको देखकर लोभा ने पूछा- भाई तुमने मेरे बच्चों को खाया है।

अब गीदड़ ने सोचा- यह बेचारी क्या करेगी सच-सच बता देता हूँ। वह गीदड़ बोला - हां बहन मैंने तुम्हारे बच्चे खाए हैं।

अब तो लोभा को ताव आ गया। उसने दाएं देखा न बाएं, लगी मूसल से गीदड़ को पीटने। जब तक उसके पेट से अपने पांचो बच्चों को निकाल न लिया तब तक उसे पीटती ही रही। अपने पांचो बच्चे निकलने तक लोभा ने गीदड़ को अधमरा कर दिया। पांचो बच्चों सहित वह घर गई तो उसने काने बच्चे को धन्यवाद दिया कि आज वह उसको सही नहीं बताता तो आज उसके सारे बच्चे मर ही जाते। अब तो वह अपने काने बच्चे को भी उतना ही प्यार करने लगी जितना कि वह अन्य बच्चों से करती थी।

 

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