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कुमुदिनी (हरयाणवी लोक कथाएँ)

नवलपाल प्रभाकर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9832

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ये बाल-कथाएँ जीव-जन्तुओं और बालकों के भविष्य को नजर में रखते हुए लिखी गई है

आत्मकथ्य

आज हमारे चारों ओर के देश तरक्की करते जा रहे हैं। जिस कारण से समाज में एक हलचल सी मच गई है, और आज के मां-बाप भी समाज की इस भागदौड़ में शामिल हो गये हैं। जिस कारण से वे अपने बच्चों पर ध्यान नहीं दे पा रहे हैं। शहरीकरण के कारण बच्चे अपने मां-बाप को भी साथ नहीं रख पा रहे हैं। मां-बाप गांव में रहते हैं, और उनके बहू-बेटे समाज के साथ मिलकर चलना चाहते हैं। इससे पूरा परिवार बिखर कर रह जाता है। बहू-बेटे शहर में रहते हैं क्योंकि उनकी मजबूरी होती है। नौकरी के लिए शहर में रहना ही पड़ता ही है। फिर उनके बच्चे घर पर अकेले रहते हैं। या तो बेचारे पढ़ते हैं या खेल लेते हैं। उनके मां-बाप शाम को नौकरी से घर पर आते हैं तो थके-हारे अपना-अपना काम निपटा कर जल्दी सोने की तैयारी में होते हैं। बच्चों को जरा सा भी वक्त नहीं दे पाते हैं। इससे बच्चों की जिंदगी नीरस सी हो जाती है।

आज जनसंख्या वृद्धि के कारण वनों की दिन-प्रति-दिन कटाई होती जा रही है। जिसके कारण प्रदूषण की समस्या आज विकराल रूप लेती जा रही है। प्रदूषण की समस्या से वायु में विषाक्त तत्व घुलते जा रहे हैं। इन विषाक्त तत्वों के कारण सांस लेना दूभर होता जा रहा है। आज पैदावार अधिक बढाने के चक्कर में किसान अधिक-से-अधिक उर्वरकों का इस्तेमाल करने लगा है। जिसके चलते खेत-खलिहानों में रहने वाले जीवों जैसे कि चिडिया, मोर व अन्य जीव जो कि हमारे लिए लाभदायक हैं कीटनाषकों का शिकार होते जा रहे हैं। हमारे बुजुर्गों के सामने जो पक्षी और जीव जन्तु थे वो हमारे मां-बाप के सामने विलुप्त हो गये। और मां-बाप के आगे के जीव जो कि हमें विरासत में मिले हैं वो आने वाली पीढी तक नहीं पहुंच पायेंगे।

यह पुस्तक मैंने जीव-जन्तुओं और बालकों के भविष्य को नजर में रखते हुए लिखी है। इस पुस्तक को मैंने अपने पुत्र हिमांक और पुत्री कृतिका को समर्पित किया है।

- नवल पाल प्रभाकर

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