आचार्य श्रीराम शर्मा >> मनःस्थिति बदलें तो परिस्थिति बदले मनःस्थिति बदलें तो परिस्थिति बदलेश्रीराम शर्मा आचार्य
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समय सदा एक जैसा नहीं रहता। वह बदलता एवं आगे बढ़ता जाता है, तो उसके अनुसार नए नियम-निर्धारण भी करने पड़ते हैं।
तीनों उद्यान फलेंगे और निहाल करेंगे
शरीर के कण-कण में संपन्नता भरी पड़ी है। आमतौर से उसे खोद निकालने के लिए श्रम और समय का सुनियोजन भर बन पड़ना है। अभिरुचि, उत्कंठा, मनोयोग एवं उत्साह का भी यदि साथ में नियोजन हो, तो फिर समझना चाहिए कि श्रम का स्तर अनेक गुना ऊँचा उठ गया। आलस्य और उपेक्षापूर्वक जैसे-तैसे बेगार भुगतने की तरह काम करना तो ऐसा ही है, जिसे ''न कुछ'' की तुलना में 'कुछ'' कहा जा सके।
सुव्यवस्थित और सर्वांगपूर्ण काम करने से श्रम का मूल्य भी बढ़ता है और स्तर भी। मस्तिष्क में इससे सूझ-बूझ की क्षमता बढ़ती है, जिसके सहारे अभ्यस्त ढर्रे से आगे बढ़कर, कुछ अधिक उपयुक्त सोचा, किया और पाया जा सकता है। सुव्यवस्था एक उच्चस्तरीय कलाकौशल है, जो किसी भी काम को सर्वांगपूर्ण सुन्दर सुसज्जित और कलात्मक बनाती है। संसार भर के प्रगतिशीलों को इसी आधार पर आश्चर्यजनक उन्नति करते देखा गया है।
छप्पर फाड़कर कदाचित् ही किसी के घर में स्वर्ण वर्षा हुई हो? दूसरों के सहारे, पराश्रित रहकर कदाचित् ही किसी ने गौरव भरा जीवन जिया हो? उत्तराधिकार में भी किसी को वैभव मिल तो सकता है, पर हराम का माल हजम नहीं होता। जिसने परिश्रमपूर्वक कमाया नहीं है, वह उसका सदुपयोग भी कदाचित् ही कर सकेगा। उठाईगीर, लुच्चे-लफंगे, छल-छद्मों के सहारे आए दिन बहुत कुछ कमाते रहते हैं, पर मुफ्त के माल का सदुपयोग कर सकना कदाचित् ही किसी से बन पडा हो। भोजन तभी हजम होता है, जब पचाने के लिए कड़ी मेहनत की जाए। मेहनत की, ईमानदारी की कमाई ही फलती-फूलती देखी गई है। यदि शरीर को व्यस्त एवं उत्साह भरी श्रमशीलता के सहारे साध लिया जाए, तो न दरिद्रता से ही पाला पड़ेगा और न किसी का मुंह ताकने की अनीति पर उतारू होने की आवश्यकता पड़ेगी।
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