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देवकांता संतति भाग 3

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2054

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

तू? जागते ही उस आदमी को अपने कमरे में देखकर चौंक पड़ी औरत- ''तू इस समय यहां क्यों आया है?''

''शायद तू मेरे हाथ में दबे हुए इस चाकू को नहीं देख रही है।'' वह आदमी खूनी स्वर में कहता है।

चाकू पर नजर पड़ते ही वह औरत एकदम घबरा जाती है। वह बिस्तर पर पीछे हटने का प्रयास करती हुई कहती है- ''ओह! तो मुझे मारना चाहता है, लेकिन ध्यान रख... अगर तूने मारा तो मैं तेरा भेद खोल दूंगी... सुरेन्द्रसिंह तुझे फांसी पर लटका देंगे।''

''मेरा भेद तुम्हारे अलावा कोई नहीं जानता फूलवती और तुम्हें मैं जीता छोड़कर अब इस कमरे से बाहर नहीं जाऊंगा।'' वह आदमी खतरनाक स्वर में बोला- ''तुम बड़ी बावली हो कि आज दिन में ही तुमने मेरा भेद सुरेन्द्रसिंह पर नहीं खोल दिया। मैं ये भी मानता हूं कि अगर तू आज दिन में ही मेरा भेद खोल देती तो मैं इस समय यहां जीता न खड़ा रहता, किन्तु तू चूक गई, पर अब मैं नहीं चूकूंगा। अगर मैं इस समय जीता छोड़ दूं तो कल तू मेरा भेद खोलकर मेरी जान लेगी। इससे अच्छा तो है कि कल का सूरज मैं तुझे देखने ही न दूं-इसी में मेरी भलाई है।''

''नहीं... नहीं!'' घबराकर उस औरत ने कहा- ''तू मुझे मत मार... मैं कसम खाती हूं तेरा भेद मैं किसी पर नहीं खोलूंगी।'' - ''मैं रहम करना नहीं जानता फूलवती।'' वह आदमी गुर्राया- ''मेरा काम ऐसा है कि अगर मैं रहम करने लगूं तो मैं एक दिन भी जीता न रहूं। तूने सबसे बड़ी भूल यही की है कि मेरा रहस्य जाना है। अगर कांता की मां वाला भेद तू न जानती तो तुझसे मेरी कोई दुश्मनी नहीं थी, परन्तु कांता की मां वाला भेद जान गई है और वह भेद खुल गया तो मेरी मौत निश्चित हो जाएगी। अपनी मौत को टालने के लिए जरूरी है कि मैं तुझे मार दूं।'' और इन शब्दों के साथ ही उस आदमी का चाकू वाला हाथ हवा में उठा, कंदील के प्रकाश में चाकू चमक उठा और अगले ही सायत खचाक से फूलवती की छाती में गड़ गया। फूलवती के कण्ठ से चीख और छाती से खून का फव्वारा निकला।

मगर उस आदमी का हाथ रुका नहीं... उसने चाकू छाती से निकाला और इस बार उसने बड़ी बेरहमी से चाकू फूलवती. चेहरे में ठूंस दिया।

''खून.. खून!'' एकदम चीख पड़ा देवसिंह।

उसकी निद्रा टूट गई। एक झटके से वह खड़ा हो गया-अब उसकी आंखों के समक्ष न राजमहल था - न गैलरी - न वह चाकू वाला और न ही फूलवती। उत्तेजना के कारण देवसिंह का चेहरा लाल सुर्ख है। सारा बदन पसीने से तर। आंखों में विचित्र-से भाव हैं। पागलपन की-सी स्थिति में वह अपने छोटे से कमरे में इधर-उधर देखता है। कमरे में चिराग का धीमा-धीमा प्रकाश टिमटिमा रहा है। -''राजमहल में खून हुआ है।'' देवसिंह को ऐसा लगा, जैसे उसके कान में कोई फुसफुसाया- ''राजमहल में अभी-अभी फूलवती का खून हुआ है, खून। किसी आदमी ने फूलवती का खून किया है ...खून...खून...खून!''

कान में जैसे कोई चीख-चीखकर कहने लगा।

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