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देवकांता संतति भाग 5

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2056

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

गुरुवचनसिंह के मुंह से इतनी बातें सुनकर बलदेवसिंह सकते की-सी हालत में आ गया। कई सायत तक वह यूं ही अपलक पत्थर की प्रतिमा की तरह गुरुवचनसिंह का चेहरा देखता रहा, फिर बोला- ''नहीं.. यह सब नहीं हो सकता। आप झूठ बोलते हैं - यह सब गलत है।''

''तुम फिर भूल गए कि ये सब बातें मैंने तुम्हें इन्द्रदेव की कसम खाने के बाद बताई हैं।''

''तो क्या वाकई तारा मेरी असली मां नहीं?'' तरद्दुद-भरे लहजे में बलदेव ने पूछा।

''यह हकीकत है।''

'लेकिन मैं कैसे यकीन कर लूं?

''मैं तुम्हारे पिता शामासिंह से यह बात कहलवा सकता हूं।'' गुरुवचसिंह ने कहा।

'मेरे पिता !' एक बार पुन: चौंककर बलदेवसिंह बोला- ''क्या आपको मालूम है कि वे कहा हैं?''

''हां-हम अच्छी तरह जानते हैं।'' गुरुवचनसिंह बोले-- ''जानते ही नहीं है, बल्कि तुझे उनसे मिलवा भी सकते हैं।”

'कहां हैं वे?'' पितृप्रेम से पागल होकर बलदेवसिंह बोला- ''आप उनके मुंह से यह बात कहलवा दें।''

''वह तो मैं कहलवा दूंगा।'' गुरुवचनसिंह ने पूछा- ''लेकिन जो बातें मैंने तुम्हें बताई हैं. उनके बारे में तुम कोई सवाल करना चाहते हो या नहीं।''

'नहीं।'' बलदेवसिंह ने पूछा- ''पहले तो आप यही बताइए जिस वक्त मैं और पिताजी घर पर पहुंचे और बैठक में तारा और गिरधारी चाचा के भेस में पिशाचनाथ वह नाटक कर रहा था, तो उस वक्त तुम्हारा रहस्यमय व्यक्ति क्या कर रहा था जिसने यह सब अपनी आखों से देखा? उसने उसी वक्त सामने आकर दुष्ट पिशाचनाथ का भाण्डा वहीं क्यों नहीं फोड़ दिया?''

''इसके कई सबब हैं।'' गुरुवचनसिंह ने बताया- ''तुम यूं समझो कि वह व्यक्ति तुम्हारा और पिशाचनाथ - दोनों का ही दुश्मन था। एक तरफ से उसने पिशाचनाथ को यह पाप करने से इसलिए नहीं रोका, क्योंकि उसे खुशी थी कि उसका दुश्मन एक ऐसा पाप कर रहा था, जिसका उसे पता है और कभी भी पिशाच को यह भेद खोलने की धमकी से वह उसे अपने चंगुल में कर सकता है। दूसरे, अगर वह उस वक्त सामने आता तो तुम भी उसे अपना दुश्मन ही समझते और उसकी बात पर यकीन न करते। उसे यह भी डर था कि कहीं तुम ही झूठा समझो और सजा दो। अतः उसने पिशाचनाथ के हाथों से यह गुनाह होने देने में ही अपना हित देखा। तुम यानी उसका एक दुश्मन तो भयानक जंजाल में उलझने जा ही रहा था और उसने सोचा कि उसका दूसरा दुश्मन यानी पिशाचनाथ ऐसा गुनाह कर ही रहा था, जिसके खुलने के भय से ही वह भविष्य में उस आदमी के चंगुल में फंस ही सकता था। इस तरह उसके दो दुश्मनों का नाश एक साथ हो रहा था---वह भला बीच में दखल क्यों देता?''

''वह व्यक्ति कौन था?''

''यह भेद इस वक्त मैं तुम्हें नहीं बता सकता।''

''क्यों?''

''अभी उसने मुझे इस बात की इजाजत नहीं दी है।''

''तो पिशाचनाथ के उस नाटक के बाद उसने क्या किया है?'' बलदेवसिंह ने पूछा।

''सोचा तो उसने यह था कि वह अन्त तक पिशाचनाथ के पीछे रहेगा और जहां जाकर पिशाच सांस लेगा, वहां पहुंचकर वह उससे कहेगा कि मैं तुम्हारा वह सारा गुनाह जानता हूं जो तुम अभी करके आए हो - और अब तुम्हें मेरी कठपुतली बनकर नाचना होगा, वर्ना मैं तुम्हारे इस घिनौने पाप का पर्दाफाश कर दूंगा। किंतु पिशाचनाथ तुम्हारे घर से तारा को लेकर घोड़े की मदद से भागा। एक घोड़े पर तुम्हारे पिता ने उसका पीछा किया। जिस तरह तुम घोड़े के अभाव में उसका पीछा नहीं कर पाए उसी तरह से वह व्यक्ति भी नहीं कर पाया और उनके वहां चले जाने के बाद बहुत आराम से वापस अपने ठिकाने पर पहुंचा। उसने तुम्हें कभी बताने की कोशिश नहीं की कि तुम एक बहुत बड़ी गलतफहमी के शिकार हो।''

गुरुवचनसिंह की बात सुनकर कई सायत तक तो अपने चेहरे पर उलझन के-से भाव लिये बलदेवसिंह उसे घूरता रहा - मानो, वह अपनी नजर से ही यह पता लगा लेना चाहता हो कि कहीं गुरुजी ने यह सब एक मनगढ़ंत कहानी तो नहीं सुनाई है। फिर बोला- ''लेकिन आपने तो कहा था कि अगर मैं आपकी बात नहीं सुनूंगा तो एक ऐसा घिनौना पाप कर बैठूंगा कि...।''

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