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देवकांता संतति भाग 5

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2056

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

''अगर तुम इस वक्त मेरी बात नहीं सुनते.. तो क्या करते?''

''बागीसिंह का सिर कलम कर देता।''

''जबकि बागीसिंह का माशे-भर भी गुनाह नहीं है।'' गुरुवचनसिंह बोले- ''क्या तुम एक बेगुनाह की हत्या का पाप अपने सिर न ले लेते?''

''हां, अगर कुछ देर के लिए मैं आपकी बताई हुई कहानी को सच मान लूं तो निसंदेह मैं एक पाप कर बैठता। मगर यह पाप ऐसा तो हरगिज न होता कि मैं खुद को दुनिया में किसी को मुंह दिखाने के काबिल ही नहीं समझता। हां, अगर यह कहानी मुझें इसको मारने के बाद पता लगती तो मुझे दिल से यह अफसोस जरूर होता कि मैंने एक दुष्ट ऐयार की ऐयारी में फंसकर एक बेगुनाह को मार डाला।''

''अगर तुम गहराई से सोचो तो तुम्हारा यह गुनाह भी कम न होता.. क्योंकि बागीसिंह तुम्हारा दोस्त है। लेकिन खैर.. क्योंकि यह पाप इतना संगीन न होता। लेकिन मुझे यह बताओ कि अगर उसके कल के बाद भी मैं तुम्हें अपनों यह कहानी न बताता तो तुम आगे क्या करते हो?''

''इसके बाप-यानी गिरधारीसिंह को मार डालता.. जो इस वक्त मेरे कब्जे में है।''

और यही तुम्हारा वह पाप होता, जिसका भेद खुलने के बाद तुम शर्म से आत्महत्या कर लेते।''

''क्या मतलब?''

'मतलब ये कि जिस गिरधारीसिंह को तुम इसका पिता समझते हो, हकीकत में वह इसका नहीं तुम्हारा पिता शामासिंह है।''

'क्या बकते हैं आप?'' बलदेवसिंह चीख पड़ा।

''हम ठीक कहते हैं।'' अपेक्षाकृत गुरुवचनसिंह मुस्कराते हुए बोले-- ''कुदरत ने तुम बाप-बेटों के साथ बड़ा अजीब खेल खेला है। तुमने यहां बागीसिंह को कैद में डालकर खुद बागीसिंह का भेस इसलिए बनाया, ताकि गिरधारीसिंह तुम्हें अपना बेटा समझकर धोखा खा जाए और तुम्हारे पंजे में रहे। उधर, तुम्हारे पिता शामासिंह ने गिरधारीसिंह को अपनी कैद में डालकर गिरधारीसिंह का भेस इसलिए बनाया, ताकि उसका बेटा बागीसिंह उसे गिरधारी समझकर उससे दूर न भागे। ऊपर वाले की लीला देखो कि तुम दोनों की ही ऐयारी कामयाब रही, यानी तुम - अपने पिता शामासिंह को गिरधारी समझकर उनके साथ रहे और तुम्हारे पिता तुम्हें बागीसिंह समझकर तुम्हारे साथ। गिरधारीसिंह के भेस में छुपे तुम्हारे पिता, तुम्हारी सफल ऐयारी के कारण यह नहीं जान पाए कि तुम उनके अपने बेटे हो, बागीसिंह नहीं। और तुम अपने पिता की सफल ऐयारी के सबब से यह नहीं जान पाए कि वे गिरधारीसिंह नहीं, तुम्हारे पिता शामासिंह हैं। तुम उन्हें गिरधारीसिंह समझकर खुद को उनका बेटा दर्शाते रहे और वे तुम्हें गिरधारी का बेटा समझकर खुद को गिरधारीसिंह। यहां मानना पड़ेगा कि तुम दोनों बाप बेटे सफल ऐयार हो.. जो एक-दूसरे की पहचान में भी नहीं आए। परन्तु देखो.. विधि का कैसा अजीब विधान है। अगर मैं तुम्हें यह भेद नहीं बताता कि तुम अपने पिता को गिरधारी समझकर मार डालते और शामासिंह तुम्हें गिरधारी का बेटा समझकर। देखा जाए तो तुम्हारी ऐयारी कितनी सफल होती - किन्तु उसी ऐयारी के जाल में उलझकर तुम कितनी बड़ी मात खाते। जरा सोचो क्या तुम अपने पिता शामासिंह को गिरधारीसिंह समझकर नहीं मार डालते? जरूर मार डालते.. किंतु जब तुम्हें पता लगता कि तुमने अपनी तलवार से अपने ही पिता को मार डाला है तो क्या तुम इस दुनिया में जी सकते थे? ”

“क्या ये सारा जमाना तुम पर थू-थू नहीं करता? क्या सब लोग तुम्हें पिता का हत्यारा नहीं कहते? जरूर कहते! तब इस घिनौने पाप का बोझ क्या तुम उठा पाते? क्या तुम पिता के हत्यारे बनकर इस दुनिया में जी सकते थे? नहीं...कदापि नहीं! निश्चय ही तुम्हारे सामने खुदकुशी के अलावा दूसरा कोई रास्ता न होता। बोलो... अगर मैं तुम्हें यह सब नहीं बता देता तो क्या तुम यह पाप न कर देते? क्या तुम इसके बाद इस दुनिया में जीना चाहते?''

कई सायत के लिए तो बलदेवसिंह को ऐसा लगा, मानो उसकी खोपड़ी हवा में चकरा रही हो। काफी कोशिशों के वाद उसने खुद पर काबू किया और बोला- ''लेकिन आज अचानक आपको मुझे यह भेद बताने की क्या जरूरत पड़ गई?''

''तुम्हें याद नहीं रहा कि मैंने तु्म्हें शुरू में ही बताया था कि भले ही तुम हमारे दुश्मन सही...लेकिन हम इतना बड़ा पाप तुम्हें करते नहीं देख सकते। दूसरी बात यह भी है कि हम तुम्हें यह पाप करने से रोककर अलफांसे को चाहते हैं। उसे हमारे हवाले कर दो।''

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