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देवकांता संतति भाग 5

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2056

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

“अभी बताता हूँ..।''

हुचांग की बात अभी पूरी नहीं हो पाई थी कि अचानक दरवाजा खुल गया। सामने के जिस चबूतरे पर थोड़ी देर पहले हुचांग लेटा हुआ था, उस पर इस वक्त बागारोफ बैठा हुआ था। वहीं बैठा-बैठा बागारोफ चीखा-- ''अबे ये क्या मामला है हरामजादे?''

''माजरा क्या है... चचा बाहर आ जाओ।'' हुचांग व्यंगात्मक स्वर में बोला।

'अबे लेकिन चमगादड़ की औलाद, मैं आऊं कैसे?'' वागारोफ चीखा-- ''ये साला रास्ता..?''

'अरे क्या बात कर रहे हो चचा?' हुचांग बागारोफ से बदला ले रहा था- ''तुम तो आराम से चबूतरे पर बैठे हो, किसी ने तुम्हें बांध तो नहीं रखा। दरवाजा भी खुला है। आओ, बाहर आ जाओ।' हम तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं।''

'देख बे चीनी साले तूने हमारे साथ दगा की है।'' बागारोफ बुरी तरह से बौखलाकर दहाड़ा-- ''साले, सारे चीन को गंजा करके रख दूंगा। हमें यहां फंसाकर खुद बाहर निकल गया। चल अपनी जगह पर आ-- हमें बाहर निकलने दे!

'मैं काफी समय से इस कमरे में हूं चचा।'' हुचांग वोला-- ''तुम काफी थक गए होगे, अब तुम आराम करो।''

''अबे मुझे नहीं करना आराम..।''

बागारोफ की बौखलाहट इस वक्त देखने लायक थी। वह हुचांग को उल्टी-सीधी, न जाने किस-किस तरह की गालियां बक रहा था। मगर टुम्बकटू ने उसकी ओर से बिल्कुल ध्यान हटाकर हुचांग से कहा- ''जल्दी बोल बे घुघ्घू -- बड़े मियां बाहर क्यों नहीं आ सकते?'' - 'बात ये है कि इस कोठरी के दरवाजे का संबंध उस चबूतरे से है, जिस पर चचा बैठे हैं।'' हुचांग ने बताना शुरू किया, हालांकि पाठक दूसरे भाग के आठवें बयान में पढ़ आए हैं, किंतु फिर कुछ शब्द हुचांग के मुंह से यहां कहलवाकर हम समझा देना चाहते हैं- ''यह दरवाजा कोठरी के अंदर से उसी हालत में खुलता है जब एक आदमी उस पर बैठा हो या लेटा हो -- यानी चबूतरा आदमी के भार से थोड़ा नीचे दबता है और दरवाजा खुल जाता है। जैसे ही आदमी उस चबूतरे को छोड़ता है, दरवाजा बंद हो जाता है। इस तरह यह कोठरी एक अजीब-सी कैद है। इसमें कैदी के न तो हाँथ-पैर बंधे होते हैं और न ही दरवाजा बंद होता है-किन्तु फिर भी आदमी इसमें कैद होकर रह जाता है। तुम देख रहे हो कि चचा चबूतरे पर बैठे हैं तो दरवाजा खुला हुआ है, मगर जैसे ही वे उठकर दरवाजे की और बढ़ेंगे-- दरवाजा बंद हो जाएगा।''

सुनकर टुम्बकटू ने कुछ ऐसे अंदाज में होंठों को सिकोड़ा-- मानो सीटी बजाने जा रहा हो!

चबूतरे पर बैठा हुआ बागारोफ अब भी अनाप-शनाप बक रहा था।

''इसीलिए तुमने बड़े मियां को चबूतरे पर बिठाया और उन्हें धोखा देकर खुद इस तरह बहर आ गए।''

''लेकिन अब इस कैद से चचा को भी बड़ी आसानी से निकाला जा सकता है!''

'वह कैसे?''

''हमें कही से साठ किलो के लगभग का एक पत्थर लाना होगा।'' हुचांग ने बताया- ''वह पत्थर हम चबूतरे पर रख देंगे, उसके भार से चबूतरा नीचे दबा रहेगा और दरवाजा खुला रहेगा। इस तरह बड़ी आसानी से चचा बाहर आ सकते हैं।''

''बात तो वाकई मार्के की कह रहे हो चीनी मियां।'' टुम्बकटू ने कहा- ''लेकिन पत्थर लेने मेरे साथ तुम क्यों चलोगे? तुम जाकर अपनी जगह पर बैठो- मैं और बड़े मियां पत्थर लाएंगे, तब तुम इस कैद से छुटकारा पाओगे।''

''नहीं, टुम्बकटू ऐसा मत कहो।'' हुचांग गिड़गिड़ा उठा- ''मुझे उस कोठरी में बहुत समय हो गया है। अगर मैं और ज्यादा देर यहां रहा तो पागल हो जाऊंगा। पता नहीं साले उस आदमी का दिमाग क्या होगा- जिसने यह कैद बनाई। उस कोठरी में अब एक भी मिनट गुजारने की मेरे अंदर ताकत नहीं है -- हम दोनों पत्थर लेकर आते हैं और चचा को निकालते हैं।''

''चल भाई, यूं ही सही।'' टुम्बकटू बोला- ''तू भी याद रखेगा कि किसी दयावान से पाला पड़ा था।''

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