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देवकांता संतति भाग 5

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2056

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

सातवाँ बयान

 

किर्र...र.र...।

रात के उस कथानक सन्नाटे में उस बड़े, भारी और पुराने फाटक के खुलने की आवाज हवा में तैरती हुई दूर तक चली जाती है और अगर इस आवाज को कोई कमजोर दिल का व्यक्ति सुने तो डर भी सकता है। आधी रात बीत चुकी है। जिस जगह का हाल हम इस वक्त लिख रहे है, वहां पूर्णतया अंधेरे का साम्राज्य है। वैसे इस जगह का नाम तेजगढ़ी है और यह उसी छोटे--से तिलिस्म का नाम है। जिसका मेघराज दारोगा है।

मेघराज- एक छोटे से तिलिस्म का दारोगा है --यह बात पहले हमारे कथानक में कई बार आ चुकी है। इस वक्त तेजगढ़ी के पूरे इलाके में ठीक मरघट जैसा सन्नाटा है! दूर-दूर तक कहीं भी कोई रोशनी नहीं दिखायी देती! मगर जब हमने तेजगढ़ी का वह विशाल एवं मुख्य फाटक खुलने की आवाज सुनी तो बरबस ही हमारी आंखें उधर के अंधकार को घूरने लगीं।

एकाएक वहां हमें रोशनी नजर आई !

वे दो आदमी हैं ---जिनमें से एक के हाथ में लालटेन है और दूसरा उसके साथ-साथ है। हम और हमारे पाठक इन दोनों को बखूबी पहचानते हैं। ये दूसरे कोई नहीं- मेघराज और पिशाचनाथ ही हैं। दोनों ही बड़े रहस्यमय ढंग से तेजगढ़ी में दाखिल हुए और पिशाचनाथ पलटकर वह पुराना दरवाजा बंद करने लगा। बंद होते समय भी दरवाजा उसी भयानक आवाज से चरमराया...!

लालटेन की रोशनी में वे मैदान पार करने लगे।

काफी दूर चलने के बाद वे एक ऐसे दालान में पहुंचे, जिसमें पत्थर की बनी हुई बेहद भयानक आकृति संगमरमर के एक चबूतरे पर बैठी थी। पत्थर की वह मूर्ति बहुत ही विशाल थी और देखने में ऐसी लगती थी, जैसे किसी राक्षस की हो। चेहरा बेहद डरावना था-- सिर ऐसा था मानो कोई बड़ा-सा कटोरा औंधा रखा हो। आकृति के होंठों के दोनों ओर दो लम्बे-लम्बे दांत इस तरह बाहर को निकले हुए दिखाये गए थे जैसे हाथी के होते हैं। मूर्ति अजीब-से ढंग से थोड़ी तिरछी करके बनाई गई थी। आंखें हाथी जैसी थीं और कान ऐसे थे, मानो हवा करने के दो बड़े-बड़े पंखें हों।

लालटेन की रोशनी में - उस आकृति को देखकर एक बार को तो पिशाचनाथ जैसे दबंग ऐयार के जिस्म में झुरझुरी-सी आ गयी। उसने देखा - आकृति के गले में पत्थरों को ही तराशकर बनाई गई एक माला दिखाई गयी थी। देखने में वह माला ऐसी लगती थी, मानो शिल्पकार ने माला फूलों की नहीं, कलियों की दर्शाई हो। पत्थरों को तराशकर बनाई गई वह माला कलियों की बनाई गई थी, फूलों की नहीं। परन्तु यह देखकर पिशाचनाथ चौंक पड़ा कि उस माला में दो फूलों की आक़ृति भी बनी थी।

''इनको महाराज चाण्डाल कहते हैं।'' मेघराज ने पिशाचनाथ को बताया- ''ये इस तिलिस्म के पहरेदार माने जाते हैं। तिलिस्म में जाने से पहले इनकी पूजा करना बहुत जरूरी है। अगर महाराज चाण्डाल की पूजा किए बिना मैं भी तिलिस्म में जाना चाहूं तो ये नहीं जाने देंगे। किसी-न-किसी ढंग से ये तिलिस्म में जाने से पहले उस आदमी की जान ले लेंगे।''

''ये तो पत्थर के बने हुए हैं...!'' पिशाचनाथ ने कहा-- ''फिर भला तिलिस्म की हिफाजत कैसे करते होंगे?''

''ऐसा मत कहो पिशाच - देखो इनकी एक कार्यवाही तो मैं अभी दिखाता हूं।'' मेघराज ने कहा- ''जरा ध्यान से इनके गले में पड़ी वह माला देखो। बनाने वाले ने उस, माला को कलियों से दर्शाया है।'' - ''माला को मैं पहले ही ध्यान से देख चुका हूं।'' पिशाच ने जवाब दिया।

“क्या कुछ खास वात नजर में आई है?'' मेघराज ने पूछा। -- ''हां! इस माला में दो कलियों की जगह फूल हैं।''

''तुमने यह बात ठीक ही पकड़ी है!'' मेघराज बोला- ''लेकिन - तुम यह बात नहीं समझे होगे कि इसका मतलब क्या है?

''क्या इसका कोई खास मतलब भी है?'' पिशाचनाथ ने पूछा- ''क्या मतलब है इसका?''

''यही कि - इस वक्त तिलिस्म में दो आदमी हैं।'' मेघराज ने बताया- ''माला के दो फूल खिलने का मतलब यही है!''

“क्या मतलब?'' पिशाचनाथ ने चौंककर पूछा--- ''दो आदमी तिलिस्म में हैं, इसलिए दो फूल खिले हैं! जरा बात को साफ-साफ कहो।”

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