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देवकांता संतति भाग 5

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2056

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

''साफ-साफ तो बस इतनी ही बात है कि जितने भी आदमी तिलिस्म के इस रास्ते से अन्दर जाएंगे, महाराज चांडाल के गले में पड़ी इस माला की उतनी ही कलियां फूल बन जाएंगी - जब तिलिस्म के अंदर का कोई आदमी इस रास्ते के जरिए तिलिस्म से बाहर आता है तो खिला हुआ एक फूल पुनः कली बन जाता है। मतलब ये हुआ कि चांडाल महाराज को देखकर यहीं से पता लगाया जा सकता है कि इस रास्ते से तिलिस्म में कितने आदमी गए हैं। और इस वक्त कितने मौजूद हैं। इस वक्त क्योंकि तिलिस्म में केवल चंद्रप्रभा और रामरतन ही हैं - इसलिए माला के दो फूल खिले हुए हैं, और फिर जब हम अंदर जाएंगे - तो इस तरह से अन्य दो कलियां भी फूल बन जाएंगीं..!''

“इस माला में ये कितनी कलियां हैं?''

'चौबीस!''

''लेकिन अगर पच्चीस आदमी अंदर जाएं-तो भला उसका पता कैसे लग सकेगा?'' पिशाचनाथ ने गम्भीर सवाल किया।

“चौबीस से ज्यादा आदमी इस रास्ते से तिलिस्म में जा ही नहीं सकते।'' मेघराज ने जवाब दिया।

“वाह! ऐसा कैसे हो सकता है?''

''तिलिस्म के मामले में किसी की जोर-जबरदस्ती नहीं चला करती है।'' मेघराज ने मुस्कराते हुए बताया-- ''ये तो मैं नहीं जानता कि वह तरकीब क्या है...? परन्तु इतना अवश्य जानता हूं कि जो लोग तिलिस्म बनाते हैं---वे सब कामों का इंतजाम करते हैं। उन्होंने इस रास्ते को कुछ इस ढंग से बनवाया है कि पच्चीसवाँ आदमी यहां से तिलिस्म में बिल्कुल जा ही नहीं सकता।''

''ऐसा कैसा रास्ता है?''

“मैंने बताया ना कि उन्होंने ऐसी कोई तरकीब अपनायी है कि कोई जा नहीं सकता। न, ही रास्ते को देखकर कोई यह पता लगा सकता है कि, पच्चीसवाँ आदमी उसमें से क्यों नहीं गुजर सकता। एक बार इस रास्ते से-पच्चीसवें आदमी को घुसाने की कोशिश भी की जा चुकी है--लेकिन अंदर कदम रखते ही वह मारा जा चुका था। उसके बाद कभी ऐसी कोशिश नहीं की गई!

''वह कैसे मारा गया?''

''इस सवाल का जवाब मैं तुम्हें आगे उस जगह पर चलकर दूंगा---- जहां वह आदमी मारा गया था।'' मेघराज ने कहा--- ''हमें लगता है कि हम बेकार ही समय खराब कर रहे हैं। क्यों न चांडाल महाराज की पूजा करके तिलिस्म में दाखिल हुआ जाए?''

''ठीक है।'' पिशाचनाथ ने कहा- ''लेकिन एक सवाल और!'' -- ''बोलो...!''

''तुम अपनी बातों में कई बार इस 'रास्ते' लफ्ज का प्रयोग कर चुके हो।'' पिशाचनाथ ने जवाब दिया-- ''क्या इस तिलिस्म का इसके अलावा और भी कोई रास्ता है, जिससे तिलिस्म में आया-जाया जा सके?''

'एक तिलिस्म के एक नहीं कई रास्ते होते हैं।'' मेघराज ने कहा---- ''इस तिलिस्म के भी कई रास्ते हैं, लेकिन अब ये मत पूछना कि वे रास्ते कहां-कहां हैं-क्योंकि हमारे फिलहाल के काम का उस बात से कोई ताल्लुक नहीं है।''

“ठीक है! नहीं पूछते!'' पिशाचनाथ ने कहा- ''पूजा करो!'' फिलहाल उनके बीच होने वाली बातों का सिलसिला यहीं टूट गया। मेघराज ने लालटेन पिशाचनाथ को पकड़ाई और अपने बटुए से बहुत-से ताजे फूले निकालकर महाराज चांडाल की मूर्ति पर चढ़ाए और उसके सामने हाथ जोड़कर होठों-ही-होठों में न जाने क्या बड़बड़ाने लगा। लालटेन हाथ में लिये पिशाचनाथ उसे देखता रहा। कुछ देर बाद मेघराज की पूजा खत्म हुई तो उसने पिशाच से कहा-- ''चलो।''

''चलो।'' पिशाचनाथ ने भी कहा- ''लेकिन रास्ता किधर है?

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