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देवकांता संतति भाग 5

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2056

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

''मुझे तुमसे किसी तरह का जवाब नहीं लेना है।'' आवाज आई- ''तुम किसी और के लिए बड़े और दबंग ऐयार होगे तो होगे। मेरे लिए तो तुम एक बेवकूफ से ज्यादा कुछ भी नहीं हो। चिंता मत करो - मैं जल्दी ही तुम्हारे सामने आऊंगा।''

बस - इन लफ्जों के बाद वह आवाज आनी बिल्कुल बंद हो गई। पिशाचनाथ काफी देर तक चीखता रहा - मगर फिर कहीं से कोई जवाब नहीं दिया गया। बहुत देर तक वह वहां खड़ा-खड़ा न जाने क्या सोचता रहा। फिर वहीं एक दरख्त के नीचे बैठकर तरद्दुद करने लगा - इस शैतानसिंह को तो उसने तिलिस्म में डाल दिया था। फिर यह बाहर कैसे आ गया? वह तो शैतानसिंह को तिलिस्म में डालकर निश्चिंत हो गया था कि अब कोई उसका भेद जानने वाला नहीं, मगर यह तो मामला ही उलट गया।

(पाठक, शैतानसिंह को तिलिस्म में डालने का हाल जानने के लिए पढ़ें-चौथे भाग का छठा बयान)

राक्षसनाथ के तिलिस्म में जो एक बार फंस जाता है, वह तिलिस्म टूटने से पहले कभी बाहर नहीं आ सकता। तिलिस्म अभी टूटा नहीं है, फिर शैतानसिंह बाहर कैसे आ सकता है? नहीं - यह शैतानसिंह नहीं हो सकता। लेकिन अगर यह शैतानसिंह नहीं है तो फिर कौन है? शैतानसिंह ने तो टमाटर वाला भेद किसी को बताया नहीं था, फिर ये कौन है? उसे टमाटर का भेद कैसे मालूम! कहीं यह कोई ऐसा आदमी तो नहीं जिसे टमाटर का भेद मालूम न हो और केवल इतना ही जानता हो कि टमाटर के पीछे पिशाचनाथ की जिंदगी का कोई घृणित किस्सा है?

हां - इतना तो उसने बेगम बेनजूर को भी बताया था।

लेकिन - अभी-अभी उस आवाज ने बताया था कि ऐसे टमाटर फूटते हुए...।

नहीं-नहीं - यह आदमी बेशक टमाटर के पीछे छुपी कहानी को जानता है, वर्ना भला वह यह लफ्ज कैसे बोल देता? इन्हीं सब तरद्दुदों में खोया पिशाचनाथ उस दरख्त के नीचे बैठा था कि अचानक उसकी तन्द्रा भंग हुई-

''अरे, तुम यहां कैसे बैठे हो पिशाचनाथ?''

उसने एकदम चौंककर आवाज की दिशा में देखा - सामने अर्जुनसिंह खड़े थे। उन्हें देखते ही पिशाचनाथ एकदम खड़ा हो गया और अपने दिली भावों को छुपाकर बोला- ''अर्जुनसिंह जी, आप! आइए बैठिए।''

''लेकिन आप तो बालादवी करने आए थे, फिर यहां कैसे बैठ गए?'' अर्जुनसिंह ने पूछा।

''यूं ही - जरा थक गया था।'' पिशाचनाथ ने जवाब दिया- ''सोचा - थोड़ा आराम ही कर लूं।''

''ये आराम का वक्त नहीं है मेरे दोस्त!'' अर्जुनसिंह बोले- ''तुम तो सब कुछ जानते हो कि हम किस तरह की मुसीबत में हैं। हमारी भोली-भाली बेटी प्रगति को उस कमबख्त दलीपसिंह ने उठवा लिया है। नानक भी उन्हीं के फंदे में है - अगर तुम मेरी मदद करो तो हम उन्हें बचा सकते हैं।''

''वह तो ठीक है, अर्जुनसिंह जी।'' पिशाचनाथ ने कहा- ''और मैं कसम खाकर कहता हूं कि न केवल इसी काम में बल्कि हर एक काम में मैं आपकी खूब मदद करूंगा लेकिन मैं आज आपसे खुले दिल से कुछ बातें करना चाहता हूं। क्या आप उन्हें ध्यान से सुनेंगे?

'कैसी बातें?'' अर्जुनसिंह ने कहा।

''आज मैं आपके सामने अपनी जिंदगी की किताब खोलकर रख देना चाहता हूं।'' पिशाचनाथ ने कहा--- 'मैंने कई बार चाहा कि मैं आपके, गुरुवचनसिंह के, गौरवसिंह के अथवा आपके किसी दूसरे साथी के सामने अपने-आपको समर्पित कर दूँ - लेकिन हिम्मत नहीं पड़ती थी। मगर आज मेरा दिल उन बातों को करने के लिए बहुत बेचैन है - क्या आप सुनेंगे?''

''लेकिन पिशाच! मुझे प्रगति की बहुत चिंता है।'' अर्जुनसिंह ने कहा।

''जब तक मैं आपके साथ हूं - आप प्रगति की बिल्कुल चिंता मत कीजिए।'' पिशाचनाथ ने कहा- ''मेरे बारे में आज तक भी कोई पूरी तरह नहीं जानता है। शायद ही कोई यह जानता हो कि मेरे दिल में क्या है और मैं क्या चाहता हूं। मैंने अपनी जिंदगी में बड़े-बड़े काम किए है। उनमें कुछ बेईमानी के, कुछ धूर्तपने के और कुछ ऐसे भी काम हैं जो मुझे पापी साबित करते हैं, किंतु उनसे भी ज्यादा मैंने कुछ ऐसे काम भी किए हैं - जिनके कारण मुझे (पिशाचनाथ को) नेकनाम और नेकनीयत ऐयार के नाम से याद किया जाए।'' कहता-कहता पिशाचनाथ थोड़ा जज्बाती-सा होता जा रहा था- ''अर्जुनसिंह जी - दुनिया में आदमी अच्छे और बुरे दोनों ही काम करता है...।''

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