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देवकांता संतति भाग 5

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2056

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

दसवाँ बयान

 

एक तरह से पिशाचनाथ यहां अपने मुंह से अपनी जीवनी कह रहा है। हम नहीं जानते कि यह कितना झूठ और कितना सच बोल रहा है - लेकिन हम यहां वही लिखेंगे, जो अभी तक पिशाचनाथ के बारे में पाठकों ने पढ़ा नहीं है। अगर उन हालों की कहीं जरूरत पड़ी तो हम संक्षेप में जरूरत के मुताबिक बयान कर देंगे।

पिशाचनाथ ने अर्जुनसिंह से कहना शुरू किया- ''आप तो जानते ही हैं कि मेरे पिता का नाम भूतेश्वरनाथ था। (बहुत से पाठकों को याद आ गया होगा - क्योंकि यह नाम पाठक संतति के तीसरे भाग के पांचवें बयान में पढ़ आए हैं। इसी भूतेश्वरनाथ को उस बयान में देवसिंह का गुरु बताया गया था।) मां का नाम सावित्री और अपने माता-पिता के हम दो लड़के थे - मेरा बड़ा भाई प्रेतनाथ और मैं यानी पिशाचनाथ। हमारे पिता अपने जमाने के सबसे बड़े ऐयार थे - और उस वक्त उन्हें वही दर्जा हासिल था, जो इस जमाने में गुरुवचनसिंह को है। उस जमाने के सभी ऐयार उन्हें अपना गुरु मानते थे। उन्हें देवसिंह और शेरसिंह जैसे दबंग ऐयारों का गुरु होने का फख्र प्राप्त था।

हम दोनों भाइयों - यानी प्रेतनाथ और मुझे उन्होंने बचपन से ही ऐयारी सिखाई।

हम दोनों का जन्म उन घटनाओं के बाद हुआ था - जब राक्षसनाथ के तिलिस्म में कांता कैद हो गई और शेरसिंह तथा देवसिंह मारे गए। अब आप ये पूछेंगे कि हमें अपने पैदा होने से पहले की घटनाएं किस तरह पता हैं? आपको समझने में आसानी रहे, इस सबब से मैं आपको सारी बातें उसी तरीके से बताता हूं - जिस तरह मुझे मालूम हुई हैं। उस वक्त प्रेतनाथ बारह वर्ष का था - तब काफी लम्बी बीमारी के बाद मेरे पिता का देहांत हुआ था। हमारी मां पहले ही इस लोक से उठ चुकी थी। अपने मरने से कोई दो घण्टे पहले हमारे पिता ने हम दोनों को एक साथ तलब किया। हम दोनों को तखलिए में करके उन्होंने कहना शुरू किया----

''बेटो, मेरे बाद इस संसार में तुम दोनों को ही देखकर लोग मुझे याद किया करेंगे। तुम दोनों ही एक तरह से मेरी जागीर हो! मगर आज जबकि मेरा अंत समय आ गया है, मैं अपने वंश की एक जिम्मेदारी तुम्हें सौंपना चाहता हूं। यह एक ऐसी जिम्मेदारी है जो हमारे वंश का हर आदमी एक लम्बे काल से अपने पुत्र को सौंपता चला आया है। -'हम समझ नहीं पा रहे हैं पिताजी--आप क्या कहना चाहते हैं?' प्रेतनाथ ने पूछा।

'सुनो।' कहते हुए उन्होंने अपने तकिए के नीचे से लाल कपड़े की एक पोटली निकाली और हमारे सामने रखते हुए बोले-- 'तुमने राक्षसनाथ के तिलिस्म का नाम तो सुना ही होगा। वही तिलिस्म जिसके लिए यहां की रियासतें हमेशा से झगड़ती रही हैं।'

'जी हां!' हम दोनों ने एक साथ कहा।

'जरा इस तिलिस्म के नाम पर गौर करो।' उन्होंने कहा।

उनकी यह बात सुनकर हम दोनों भाई एकदूसरे का चेहरा देखने लगे। उनकी बात का मतलब हम दोनों में से किसी की भी समझ में नहीं आया था। जब उन्होंने हमें तरद्दुद में देखा तो बोले-- 'ज्यादा तरद्दुद करने की जरूरत नहीं है। सोचना केवल ये है कि इस तिलिस्म का नाम राक्षसनाथ का तिलिस्म है। इसमे मैं तुमसे केवल नाथ' लफ्ज पर गौर करने के लिए कह रहा हूं।'

'क्या मतलब?' हम दोनों ही उनका इशारा समझकर चौंक पड़े। - 'तुम ठीक समझे हो बेटो।' हमारे पिता ने कहा- 'नाथ लफ्ज हमारे ही वंश की निशानी है। राक्षसनाथ मेरे दादा का, मेरे पिता का नाम भूतनाथ था। मेरा नाम भूतेश्वरनाथ और, तुम दोनों के नाम परम्परानुसार प्रेतनाथ और पिशाचनाथ हैं। तुम दोनों में से अगर किसी के यहां लड़का हो तो उसके नाम के आगे नाथ ही लगाना।'

'क्या आप ये कहना चाहते हैं कि राक्षसनाथ का तिलिस्म हमारा है?' प्रेतनाथ ने चौंककर पूछा।

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