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देवकांता संतति भाग 5

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2056

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

'हां..एक नजरिए से देखने से यही लगता है।' हमारे पिता ने बताया- 'मगर हकीकत ये नहीं है, हकीकत ये है कि हम इस तिलिस्म के केवल पहरेदार मात्र हैं। आज से कई सदी पहले अमरसिंह नाम के एक राजा हुए थे, राक्षसनाथ यानी मेरे दादा उनके खास ऐयार थे। अमरसिंह राक्षसनाथ से बेहिसाब मुहब्बत करते थे। राक्षसनाथ की ही मदद से वे अपने जमाने के दिग्विजयी राजा बने और उन्हीं की मदद से इस तिलिस्म को बांधा गया। अमरसिंह दादा पर इतने मेहरबान थे कि उन्होंने तिलिस्म का नाम भी राक्षसनाथ के नाम पर ही रखा। वैसे यह तिलिस्म उसी वंश के दो राजकुमारों के नाम से बांधा गया है। उनके उस तिलिस्म को कोई नहीं तोड़ सकता। इस तरह से अमरसिंह ने राक्षसनाथ को इस तिलिस्म का दारोगा मुकर्रर किया।'

'क्या अमरसिंह के वंश के दो युवराज आज हैं, जिनके नाम से तिलिस्म बांधा गया था?' प्रेतनाथ ने पूछा।

'थे लेकिन अब नहीं हैं।' हमारे पिता ने जवाब दिया।

'क्या मतलब?' इस बार मैंने चौंककर पूछा।

'मेरे पास तुम्हें सारी कहानी मुख्तसर में बताने का तो वक्त नहीं है।' हमारे पिता बोले- 'मगर मैं तुम्हें कुछ ऐसी जरूरी-जरूरी बातें बता रहा हूं जिनसे तुम्हारा काम निकल जाएगा। अमरसिंह के वंश के वे दोनों युवराज देवसिंह और शेरसिंह थे।'

'क्या वे ही दोनों जो पिछले दिनों मारे गए?' प्रेतनाथ ने पूछा।

'हां - तुम बखूबी जानते हो कि अनेक राजाओं ने मिलकर इन दोनों भाइयों को खत्म कर दिया। देवसिंह की पत्नी कांता उसी तिलिस्म में कैद है। मगर देवसिंह के ऐयार गुरुवचनसिंह उनके पुत्र और पुत्री को बचा ले गये हैं। उनके पुत्र का नाम गौरवसिंह और पुत्री का नाम वंदना है। मैंने उन्हें काफी ढूंढ़ा, लेकिन कुछ पता नहीं लग सका। लेकिन मेरे बाद अब तुम्हारा काम ये है कि यह अमानत तुम उन्हें किसी भी तरह दूंढ़कर उन तक पहुंचा दो।' आखिरी बात उन्होंने लाल कपड़े की पोटली की तरफ इशारा करके कही।

'यह राक्षसनाथ के तिलिस्म की कुंजी है। इसमें से एक किताब राक्षसनाथ ने अपने खून से लिखी है, इसलिए इसका नाम रक्तकथा है। रक्तकथा क्योंकि खुद काफी मोटा ग्रंथ है इसलिए इसमें कुछ कठिन लफ्ज आ गए हैं। बहुत-सी शर्तें तो ऐसी गुप्त भाषा में लिखी हैं कि वे समझ में भी नहीं आतीं..। आगे चलकर रक्तकथा को पढ़ने में किसी को किसी तरह की मुसीबत न पड़े, उसी ख्याल से हमारे पिता यानी भूतनाथ ने रक्तकथा को समझने के लिए छोटा-सा ग्रंथ लिखा है - उसका नाम मुकरंद रखा गया है। मुकरंद में रक्तकथा के उन सभी पहलुओं को-जो समझ में नहीं आते समझाकर साफ तौर पर लिखा गया है। रक्तकथा में जो बातें गुप्त भाषा में लिखी हैं - उन्हें भूतनाथ ने मुकरंद में साफ-साफ लिखकर आसानी कर दी है - किंतु इस वक्त मेरे पास, केवल रक्तकथा ही है. ..मुकरंद नहीं...।'

'मुकरंद कहां गया...?' तुम दोनों ने एक साथ चौंककर पूछा! - वह चोरी चला गया है।' हमारे पिता ने बड़े दुःखी मन से बताया- “और मुझे ये भी नहीं पता है कि मुकरंद चुराने वाला चोर कौन है? ”

इसका मतलब ये हुआ कि चोर मुकरंद पढ़कर तिलिस्म के सारे भेद जान जाएगा?'

'नहीं!' हमारे पिता ने कहा--- 'केवल मुकरंद पढ़कर तो किसी इन्सान के पल्ले कुछ भी नहीं पड़ सकता। उसमें तो केवल रक्तकथा के कठिन अंश ही सरल भाषा में लिखे हैं। असली चीज तो यह रक्तकथा ही है। हां, रक्तकथा को समझने के लिए मुकरंद जरूरी है। उस वक्त तक मैंने मुकरंद में लिखा एक लफ्ज भी न पढ़ा था कि वह चोरी चला गया। पूरी जिंदगी मैं उसे हासिल करने की कोशिश करता रहा, परन्तु अपने इरादे में कामयाब न हो सका। मैंने तुम दोनों को अपनी सारी ऐयारी सिखा दी है अब तुम्हारा काम यही है कि मुकरंद के चोर का पता लगाकर उससे मुकरंद हासिल करना और यें दोनों चीजें गौरवसिंह को सौंप देना।'' कहानी को पिशाच ने विराम लगाया।

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