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देवकांता संतति भाग 5

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2056

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

दूसरा बयान

 

प्रिय पाठको, दूसरे बयान का कथानक लिखने से पूर्व मैं दो-एक बातें यहां लिख देना मुनासिब समझता हूं। उन बातों की जानकारी से कदाचित इस उलझे हुए कथानक को समझने में आप लोगों को सहूलियत हो। मैं जानता हूं कि इस कथानक को पढ़ने में आप लोगों को काफी दिमाग का प्रयोग करना पड़ रहा है, तब आप ही कल्पना कीजिए कि लिखते वक्त मेरा क्या हाल होगा? यह तो आपको याद हो गया होगा कि पांचवें भाग का पहला बयान पहले भाग में छोड़े गए कौन-से बयान से आगे बढ़ाया गया है। यह बयान किस ढंग से तीसरे भाग के तेरहवें-चौदहवें और चौथे भाग के पहले, चौथे, छठे, सातवें और आठवें बयान से सम्बन्धित है। उस ढंग से यह दूसरा बयान जो अब मैं लिखने जा रहा हूं चौथे भाग के आठवें बयान से आगे का कथानक स्पष्ट करता है। अगर आपको पिछली बातें याद न हों तो वह बयान सरसरी नजर से पढ़ जाएं।

गुरुवचनसिंह ने बलदेवसिंह को यूं बताना शुरू किया- ''दलीपसिंह के महल से निकलने के बाद से ही एक रहस्यमय व्यक्ति पिशाचनाथ के पीछे था। वह बराबर पिशाचनाथ का पीछा कर रहा था और उसकी एक-एक हरकत नोट कर रहा था। पिशाचनाथ महल से निकलकर सीधा मठ पर पहुंचा। मठ का ऊपरी भाग इस वक्त बिल्कुल खाली था। दूर-दूर तक भी वहां किसी अन्य इन्सान का नामोनिशान नहीं था। पिशाचनाथ को गुमान तक नहीं था कि उसके पीछे कोई है। 'गुप्त रास्ते' से पिशाचनाथ मठ के अन्दर प्रविष्ट हो गया था।

उस रहस्यमय व्यक्ति ने भी उसका अनुकरण किया।

जैसे ही उसने मठ के नीचे जाने वाला वह रास्ता खोजा तो नीचे चकमक की रोशनी हुई और पिशाचनाथ ने मोमबत्ती जला ली। मठ के रास्ते की तरफ उसका कोई ध्यान नहीं था! वह पतली-सी सुरंग में आगे चला जा रहा था। चकमक की रोशनी में इस व्यक्ति ने देख लिया था कि नीचे उतरने के लिए लोहे की सीढ़ियां बनी हुई हैं। वह निःशब्द नीचे उतर गया और पतली सुरंग में पिशाचनाथ का पीछा करता रहा। पिशाचनाथ के हाथ में क्योंकि जली हुई मोमबत्ती थी - इसलिए इस व्यक्ति को पीछा करने में किसी तरह की परेशानी नहीं हो रही थी। आगे जाकर सुरंग चौड़ी हो गई। दीवार के दोनों तरफ छोटी-छोटी कोठरियां बनी हुई थीं।

अचानक पिशाचनाथ एक कोठरी में घुस गया।

उस व्यक्ति ने झांककर अन्दर देखा - उस कोठरी की जमीन पर मोटे-मोटे कम्बल पड़े थे। बाकी कोठरी खाली थी। एक पल ठहरकर पिशाचनाथ ने मोमबत्ती को जमीन पर जमाया और फिर उस व्यक्ति के देखते-ही-देखते कमरे में लगी खूंटी पर झूल गया। परिणामस्वरूप कोठरी की दीवार में एक रास्ता पैदा हो गया। पिशाचनाथ ने मोमबत्ती उठाई और उस रास्ते में समा गया।

वह व्यक्ति आराम से अपनी जगह खड़ा रहा।

कुछ ही देर बाद वह रास्ता पुन: गड़गड़ाहट के साथ बंद हो गया। अब इस व्यक्ति ने भी अपने बटुए से मोमबत्ती निकालकर जला ली, कुछ समय उसने यूं ही उस कोठरी की हालत देखने में गंवाया। फिर उसने पिशाचनाथ की तरह खूंटी पर लटककर रास्ता खोल दिया। यह काम करने से पहले वह मोमबत्ती बुझाना नहीं भूला था।

उसने धीरे से झांककर सुरंग में देरवा।

धनघोर अंधेरे के अलावा उसे कुछ नहीं चमका। वह समझ गया कि आगे जाकर सुरंग में कोई मोड़ है और निश्चय ही पिशाचनाथ उस मोड़ पर मुड़ चुका है। वर्ना उसके हाथ में दबी मोमबत्ती ही उसे दूर से चमका देती।

(बस - इस रास्ते के बारे में यहां इतना ही लिखना बहुत है, इस रास्ते का विस्तृत हाल आप चौथे भाग के चौथे बयान में पढ़ आए हैं। यहां यही समझना चाहिए कि गुरुवचनसिंह ने बलदेवसिंह को उस रास्ते का हाल ठीक-ठीक बताया। यहां हम वही हाल लिखें जो इस वक्त हमें लिखना उचित जान पड़ता है।)

अन्त में पिशाचनाथ ने दाहिनी तरफ का पत्थर हटाकर उसके नीचे वाली खूंटी दबाई तो सुरंग की छत और सुरंग की धरती एक लोहे की सीढ़ी के जरिए मिल गई। उस व्यक्ति के टेखते-ही-देखते पिशाचनाथ ने सीढ़ी पर चढ़ना आरम्भ किया।

उस व्यक्ति ने खास तौर से देखा----- पिशाचनाथ ने सात नम्बर के डंडे को तीन बार खास ढंग से दबाया।

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