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देवकांता संतति भाग 6

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2057

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

 

तीसरा बयान


''ये आपने क्या किया गुरुजी?'' पहाड़ियों की गुंजन खत्म होने पर गौरवसिंह बोला-- ''अब इस बुकनी की क्या जरूरत थी?''

''ये दोनों अपने इस जन्म को भूलकर पूर्णतया पूर्वजन्म में प्रवेश कर गए थे।'' गुरुवचनसिंह ने बताया-- ''ऐसी हालत में ये उस जन्म की भाबुकता में ही डूबे रहते और वे जरूरी काम नहीं कर पाते, जो इन्हें करने हैं। अब ये बेहोश हो गए हैं, कुछ देर बाद जब दुबारा होश में आएंगे तो ये इसी जन्म में वापस लौट आएंगे। इनके दिमागों में अपने दोनों जन्मों की यादें रहेंगी लेकिन पिछले जन्म की भावुकता में नहीं डूब पाएंगे। इनकी हालत हमें ऐसी ही रखनी है कि दोनों जन्मों की यादें इनके दिमाग में रहें। अगर दोनों में से किसी भी जन्म की याद इनके दिमाग से निकल गई - तो ये वह काम बखूबी नहीं कर सकेंगे जो कि इन्हें करने हैं। यहां क्योंकि इनकी मुलाकात दोनों ही जन्मों के आदमियों से होनी है। अत: इनकी ऐसी ही हालत जरूरी है।''

''तो फिर अब आपका क्या हुक्म है?'' गौरवसिंह ने कहा।

'इन्हें उठाकर वहीं मैदान में नदी के पास ले चलो।'' गुरुवचनसिंह ने कहा-- ''वहीं इन्हें होश में लाएंगे और आराम से बैठकर बातें करेंगे।''

गुरुवचनसिंह के हुक्म पर गौरवसिंह विजय को और महाकाल अलफांसे को मैदान में लाकर लखलखा सुंघा रहे थे! दोनों ने ही एक साथ होश में आना शुरू किया और दोनों इस तरह उठ बैठे मानो गहरी नींद से जागे हों।

''कहो लूमड़ प्यारे।'' विजय अलफांसे की ओर देखकर आंख मारता हुआ बोला- ''की गल है?''

''यस जासूस की दुम।'' अलफांसे भी मुस्कराकर बोला- ''कोई नहीं!''

''यार लूमड़ भाई! अभी थोड़ी देर पहले क्या हो गया था हमें?'' विजय ने पूछा।

''हम अपने पिछले जन्म की यादों में खो गए थे।'' अलफांसे ने कहा। इस तरह से वे दोनों कुछ देर तक इसी तरह की ऊट-पटांग बातें करते रहे। वे दोनों आपस में इस ढंग से बातें कर रहे थे मानो एक दूसरे के अलावा आस-पास बैठे अन्य लोगों को उन्होंने देखा ही न हो। अब हम उनके मिलन और अजीब-सी बातों से निकलकर अपने कथानक पर आते हैं। हमारे पाठक अच्छी तरह जानते हैं कि ये दोनों पात्र कितने विचित्र हैं। अगर हम इन दोनों के बीच होने वाली बातों को यहां खोलने बैठ गए तो कथानक के लिए जगह भी न बचेगी। हमारे पास वैसे भी इतना कथानक है कि जगह का अभाव-सा महसूस हो रहा है। उनके बीच होनी वाली बातों का सिलसिला गुरुवचनसिंह ने कथानक की ओर यह कहकर मोड़ा- ''देवसिहजी - आपके साथियों यानी विकास, निर्भय सिंह, रघुनाथ, अजय, वंदना और धनुषटंकार को उमादत्त ने कैद कर लिया है।''

''बड़ी खुशी की बात है...।'' विजय अपने ही मूड में बोला-- ''मगर आप मुझे यह सब बताकर मुझसे क्या चाहते हैं?''

एक बार को तो विजय के इस जवाब पर गुरुवचनसिंह बौखला उठे, फिर सम्भलकर बोले- ''मेरा मतलब है कि क्या आप उन्हें उमादत्त की कैद से छुड़ाकर लाने की कोशिश नहीं करेंगे?''

''मेरे दिमाग में क्या फोड़ा निकला है?'' विजय एकदम मूर्खों वाले अंदाज में बोला।

गुरुवचनसिंह की खोपड़ी भिन्नाकर रह गई - मगर वे फिर बोले- ''वे सब आपके रिश्तेदार और साथी हैं।''

''बड़ी खुशी हुई यह जानकर।'' विजय इतना कहकर चुप हो गया।

अब तो गुरुवचनसिंह बगलें झांकने लगे! उनकी समझ में न आया कि वे किस ढंग से विजय से बात करें। अलफांसे गुरुवचनसिंह की हालत देखकर मुस्कराया और विजय से बोला- ''ये लोग तुम्हारा मजाक नहीं समझेंगे जासूस प्यारे - इनसे सीधी तरह बात करो।''

''अबे लूमड़ मियां - तुमने भी पता नहीं साले आज क्या खा लिया है?'' विजय एकदम उसकी तरफ घूमकर बोला- ''अपना मुंह ठीक उनके मुंह की सीध में रखकर बात की है और फिर भी कहते हो कि सीधी तरह बात करो। अबे ये सीधी नहीं तो क्या टेढ़ी बात थी?'' अब तो विजय को संभालना अलफांसे के बस से भी बाहर की बात हो गई। वह समझ गया कि विजय अब उस वक्त तक चुप न होगा जब तक कि वह खुद नहीं चाहेगा। नतीजा यह हुआ कि वह बराबर अपनी बकबक में लगा रहा। गौरवसिंह खैर उसकी इन बातों से थोड़ा परिचित हो गया था। लेकिन गुरुवचनसिंह, गणेशदत्त और महाकाल इस ढंग से उसका चेहरा देख रहे थे मानो वह मूर्ख हो।

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