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उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

महेंद्र ने पूछा - 'तुम्हारा नाम?'

अनुकूल बाबू ने उत्साह दिया - 'बता बेटी, अपना नाम बता!'

अपने अभ्यस्त आदेश-पालन के ढंग से झुक कर उसने कहा - 'जी, मेरा नाम आशालता है।'

'आशा!' महेंद्र को लगा, नाम बड़ा ही करुण और स्वर बड़ा कोमल है।

दोनों मित्रों ने बाहर सड़क पर आ कर गाड़ी छोड़ दी। महेंद्र बोला - 'बिहारी, इस लड़की को तुम हर्गिज मत छोड़ो।'

बिहारी ने इसका कुछ साफ जवाब न दिया। बोला - 'इसे देख कर इसकी मौसी याद आ जाती है। ऐसी ही भली होगी शायद!'

महेंद्र ने कहा - 'जो बोझा तुम्हारे कंधे पर लाद दिया, अब वह शायद वैसा भारी नहीं लग रहा है।'

बिहारी ने कहा - 'नहीं, लगता है तो ढो लूँगा।'

महेंद्र बोला - 'इतनी तकलीफ उठाने की क्या जरूरत है? तुम्हें बोझा लग रहा हो तो मैं उठा लूँ।'

बिहारी ने गंभीर हो कर महेंद्र की तरफ ताका। बोला - 'सच? अब भी ठीक-ठीक बता दो! यदि तुम शादी कर लो तो चाची कहीं ज्यादा खुश होंगी- उन्हें हमेशा पास रखने का मौका मिलेगा।'

महेंद्र बोला - 'पागल हो तुम! यह होना होता तो कब का हो जाता।'

बिहारी ने कोई एतराज न किया। चला गया और महेंद्र भी यहाँ-वहाँ भटक कर घर पहुँच गया।

माँ पूरियाँ निकाल रही थीं। चाची तब तक अपनी भानजी के पास से लौट कर नहीं आई थीं।

महेंद्र अकेला सूनी छत पर गया और चटाई बिछा कर लेट गया। कलकत्ता की ऊँची अट्टालिकाओं के शिखरों पर शुक्ल सप्तमी का आधा चाँद टहल रहा था। माँ ने खाने के लिए बुलाया, तो महेंद्र ने अलसाई आवाज में कहा - 'छोड़ो, अब उठने को जी नहीं चाहता।'

माँ ने कहा - 'तो यहीं ले आऊँ?'

महेंद्र बोला - 'आज नहीं खाऊँगा। मैं खा कर आया हूँ।'

माँ ने पूछा - 'कहाँ खाने गया था?'

महेंद्र बोला - 'बाद में बताऊँगा।'

वे लौटने लगीं तो थोड़ा सोचते हुए महेंद्र ने कहा - 'माँ! खाना यहीं ले आओ।'

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