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उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

3

रात में महेंद्र ठीक से सो नहीं पाया। तड़के ही वह बिहारी के घर पहुँच गया। बोला - 'यार, मैंने बड़ी ध्यान से सोचा और देखा कि चाची यही चाहती है कि शादी मैं ही करूँ।'

बिहारी बोला - 'इसके लिए सोचने की जरूरत नहीं थी। यह बात तो वे खुद कई बार कह चुकी हैं।'

महेंद्र बोला - 'तभी तो कहता हूँ, मैंने आशा से विवाह न किया तो उन्हें दु:ख होगा।'

बिहारी बोला - 'हो सकता है!'

महेंद्र ने कहा, 'मेरा खयाल है, यह तो ज्यादती होगी।'

'हाँ! बात तो ठीक है।' बिहारी ने कहा - 'यह बात थोड़ी देर से आपकी समझ में आई। कल आ जाती तो अच्छा होता।'

महेंद्र - 'एक दिन बाद ही आया, तो क्या बुरा हो गया।'

विवाह की बात पर मन की लगाम को छोड़ना था कि महेंद्र के लिए धीरज रखना कठिन हो गया। उसके मन में आया- इस बारे में बात करने का तो कोई अर्थ नहीं है। शादी हो ही जानी चाहिए।

उसने माँ से कहा - 'अच्छा माँ, मैं विवाह करने के लिए राजी हूँ।'

माँ मन-ही-मन बोलीं- 'समझ गई, उस दिन अचानक क्यों मँझली बहू अपनी भानजी को देखने चली गई। और क्यों महेंद्र बन-ठन कर घर से निकला।'

उनके अनुरोध की बार-बार उपेक्षा होती रही और अन्नपूर्णा की साजिश कारगर हो गई, इस बात से वह नाराज हो उठीं। कहा - 'अच्छा, मैं अच्छी-सी लड़की को देखती हूँ।'

आशा का जिक्र करते हुए महेंद्र ने कहा - 'लड़की तो मिल गई।'

राजलक्ष्मी बोली - 'उस लड़की से विवाह नहीं हो सकता, यह मैं कहे देती हूँ।'

महेंद्र ने बड़े संयत शब्दों में कहा - 'क्यों माँ, लड़की बुरी तो नहीं है।'

राजलक्ष्मी- 'उसके तीनों कुल में कोई नहीं। ऐसी लड़की से विवाह रच कर कुटुंब को सुख भी न मिल सकेगा।'

महेंद्र - 'कुटुंब को सुख मिले न मिले, लड़की मुझे खूब पसंद है। उससे शादी न हुई तो मैं दुखी हो जाऊँगा।'

लड़के की जिद से राजलक्ष्मी और सख्त हो गईं। वह अन्नपूर्णा से भिड़ गईं- 'एक अनाथ से विवाह करा कर तुम मेरे लड़के को फँसा रही हो। यह हरकत है।'

अन्नपूर्णा रो पड़ीं - 'उससे तो शादी की कोई बात ही नहीं हुई, उसने तुम्हें क्या कहा, इसकी मुझे जरा भी खबर नहीं।'

राजलक्ष्मी इसका रत्ती-भर यकीन न कर सकीं।

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