|
उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
|
203 पाठक हैं |
जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘‘मगर अज़ीज साहब के जाने से आपको कठिनाई होगी।’’
‘‘यह हमें इन्तजाम में अपनी योग्यता से अधिक राय देने लगता है।’’
नज़ीर चुप रही। वह समझ रही थी कि गवर्नर जनरल शासन की मस्ती से बदमस्त हो रहा है। साथ ही वह देख रही थी कि यह शराब हद से अधिक पीने लगा है। इससे भी इसकी विचार-शक्ति कम हो रही है।
दोनों खाना खाने लगे थे। अय्यूब ने कहा, ‘मैं चाहता हूं कि तुम बुर्का पहन कर जाओ।’’
‘‘लन्दन में भी?’’
‘‘नहीं। दिल्ली से निकलते ही बुर्का उठा सकोगी।’’
‘‘क्या फायदा होगा इससे?’’
‘‘मेरी ऐसी ही मर्जी है।’’
नज़ीर समझ रही थी कि सहज ही छुट्टी मिल रही है।
ये अभी खाना खा ही रहे थे कि टेलीफोन आ गया। नज़ीर उठ कर सुनने गयी। अज़ी़ज़ ने बताया कि नज़ीर को ग्यारह बजे तैयार रहना चाहिए। वह कार में आयेगा। उसकी तीनों बीवियां भी साथ जा रही हैं।
नज़ीर उस दिन की स्मृति में लीन लेटी थी कि अज़ीज़ साहब आ गये। घण्टी बजी और वह उठकर बाहर चली गयी।
|
|||||










