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उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘‘घर तुम्हारा है और निमन्त्रण भी तुम दे सकती हो।’’
‘‘नज़ीर बेटी! मैं ब्रेकफास्ट कर के ही आया हूं और फिर हवाई जहाज पर सीट बुक करानी है।’’
अब अज़ीज़ अहमद ने गवर्नर जनरल से कहा, ‘‘हुजूर! इजाज़त हो तो जाऊं?’’
‘तो तुम दिल्ली जाना पसन्द करते हो?’’
‘‘मैं आपका हुक्म बजा लाना पसन्द करता हूं। वैसे आपने पहले भी तो एक दिन कहा था कि मेरा भी तबादला होना चाहिए।’’
‘‘हां, ठीक है।’’
नज़ीर ने कहा, ‘‘अंकल! मेरे लिए लन्दन का टिकट खरीद लीजिए। यहां से दिल्ली टेलीग्राम करा दीजिए।’’
‘‘और टिकट के लिए दाम?’’
नज़ीर उठकर अपने बैड रूम में गयी और वहां से एक नोटों का बण्डल उठा लायी। उसने बण्डल अज़ीज़ के हाथ में देते हुए कहा, ‘‘यह दस हजार रुपया है। हिसाब ऐयरोड्रोम पर कर लेंगे।’’
अज़ीज़ ने गवर्नर बहादुर को सलाम किया और बाहर निकल गया।
अय्यूब खां ने कहा, ‘‘अज़ीज़ आदमी कमाल का है। हमेशा काम के लिए तैयार रहता है।’’
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