|
उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
|
203 पाठक हैं |
जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
यही बात एक दिन नज़ीर को अय्यूब ने बतायी थी। अब नज़ीर ने पाकिस्तान की अवस्था सन् १९५८ से १९६२ तक का वृत्तान्त बना दिया।
उसने कहा, ‘‘फादर के शासन अपने हाथ में लेते ही पहले तो पूर्ण पाकिस्तान में विस्मय, फिर भय और पीछे शान्ति हो गयी। फादर ने बड़ी-बड़ी जमींदारिया जप्त कर लीं। छापे मार-मार कर काला धन निकलवाया और विदेशी मुद्रा जहां भी मिली, पकड़ ली। जिन लोगों ने नाज़ायज़ परमिट लिए हुए थे, वापस ले लिए गये। यह समाचार-पत्रों में प्रकाशित होता तो लोग मिलिटरी शासन का स्वागत करने लगते थे। अय्यूब जिन्दाबाद के नारों से पाकिस्तान गूंज उठा था, परन्तु कुछ काल पीछे वे सैनिक अधिकारी जो शासन में लिए गये थे, वे स्वयं धन कमाने लगे तो उनके विरुद्ध समाचार छपने लगे। अब समाचार-पत्रों पर प्रतिबन्ध लगाया जाने लगा। साथ ही सैनिक अधिकारी बदले जाने लगे। दूसरी ओर सेना का नाम बदनाम करने वालों पर जोरो-जुल्म होने लगा।
‘‘इन चार वर्षों में ही पूर्ण जनता और जहां तक मुझे ज्ञात है सैनिक भी फादर के शासन के विरुद्ध हो गये हैं। अब समाचार-पत्रों पर प्रतिबन्ध है। विपक्षी दलों पर प्रतिबन्ध है, न्यायालयों के सरकारी कानून पर टीका-टिप्पणी करने पर प्रतिबन्ध है और वास्तव में वहां ऐसा कुछ भी नहीं जिस पर सरकारी कन्ट्रोल नहीं।’’
‘‘जब मैं अज़ीज़ साहब के साथ इस्लामाबाद से दिल्ली आ रही थी, उस दिन हवाई जहाज में बैठ मैंने उनसे कहा था कि वह पाकिस्तान से भाग आए प्रतीत होते हैं। इस पर वह बताने लगे, ‘हां! मैं गवर्नर जनरल के शासन को ज्वालामुखी पर बैठा अनुभव करता हूं और यह ज्वालामुखी अब फटने ही वाला प्रतीत होता है। इसमें से घर्र-घर्र की आवाज़ आने लगी है। इसलिए मैं अपना पूर्ण परिवार लेकर दिल्ली आ जाने में ही खैर समझता हूं।’’
|
|||||










