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उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘‘मुझे पता चला कि आज तुम पाकिस्तान ले जाई जाने वाली हो। इस बात का पता चलते ही मैं चोर को मोर बन गया हूं।
‘‘तनिक मेरी ओर देखो! क्या मैं उस जर्नलिस्ट से कम सुन्दर और कम योग्य खाविन्द हूं?’’
‘‘परन्तु मेरा तो विवाह हो चुका है।’’
‘‘मुझे मालूम है! ऐसे विवाह यूरोप की साठ प्रतिशत लड़कियां नित्य करती रहती हैं।’’
‘‘मगर मैं वैसी नहीं हूं।’’
‘‘तो वैसी बन जाओ! बहुत सुख पाओगी।’’
‘‘तो आप मुझसे बलात्कार करने के लिए मुझे यहां लाये हैं?’’
‘‘मैं तुम्हें यहां नहीं लाया। पहचानो, तुम मेरे साथ आई थीं यहां?’’
नज़ीर उसके मुख पर देखने लगी। अपने आपको भारत की सीक्रेट पुलिस का अधिकारी कहने वाला तो कोई प्रौढ़ावस्था का व्यक्ति प्रतीत होता था। उसके सिर पर श्वेत बाल भी दिखाई देते थे और उसके सामने खड़ा कोई कश्मीरी सुन्दर युवक लम्बी भुजायें, चौड़ी छाती और उससे पांच इंच ऊंचा व्यक्ति था।
नज़ीर अभी उसके मुख पर देख ही रही थी कि वह युवक बोला, ‘‘मैं इस समय पच्चीस वर्ष का युवक हूं और तुम इतनी सुन्दर हो कि तुम पर बलात्कार करने को जी चाहता है। परन्तु मैं ऐसा करूंगा नहीं।’’
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