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उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
चौथे दिन ये एक ऊंचे पर्वत को पार कर एक मैदान में पहुंचे। वहां सर्दी कुछ कम थी। पथ-प्रदर्शक अंगुली से उत्तर की ओर संकेत कर कहने लगा, ‘‘वह देखो तिब्बत!’’
‘‘बहुत सुन्दर है।’’
‘‘क्या देखने आये हैं?’’
‘‘चीनी सेना शिविर।’’
उस व्यक्ति ने कहा, ‘‘आइये!’’ यह कह वह एक और को चल पड़ा। इनको दो घण्टे से अधिक चलना नहीं पड़ा कि तिब्बती लामों के से पहरावे में लोग दिखायी देने लगे थे। इनके बीच-बीच में चीनी सैनिक भी घूमते-फिरते दिखायी देंने लगे थे।
एक स्थान पर कुछ चीनी सैनिकों ने इनको रोक लिया। इस पर तेज के साथ आ रहे व्यक्ति ने अपने चोगे के नीचे से एक ताम्बे का बिल्ला निकाल कर दिखाया। इसपर चीनी अधिकारी ने उससे प्रश्न पूछने आरम्भ कर दिए। वह गाइड उनकी भाषा में उत्तर दे रहा था। चीनी सैनिक अफसर बार-बार तेज की ओर देख रहा था। इससे तेज समझ रहा था कि उसके विषय में बातचीत हो रही है।
वे चीनी सैनिक तेज और उसके साथी को लेकर एक ओर को चल पड़े। कुछ अन्तर पर बहुत बड़ा सैनिक शिविर दिखायी दिया, परन्तु वह लगभग खाली था। उन चीनी सैनिकों ने तेज और उसके साथी को घेरे हुए ले जाकर एक अफसर के सामने उपस्थित कर दिया। इस पर एक व्यक्ति को, जो अंग्रेज़ी में बातचीत कर सकता था, बुलाया गया। उसकी पूर्ण परिस्थिति से अवगत किया गया। उसने तेजकृष्ण से प्रश्न पूछने आरम्भ कर दिए, ‘‘तुम हिन्दू मालूम होते हो?’’
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