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उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
उस समय कुछ अधिक विचार करने का समय नहीं था। शिविर के द्वार की ओर न जाकर वे पिछवाड़े की ओर जा रहे थे। कांटेदार तार की बाड़ थी, परन्तु घटनावश अथवा जान-बूझकर उसमें से निकल जाने का एक सुराग बना हुआ था। जब ये शिविर के बाहर निकल गये तो पाँव के बल खड़े हो गये। तेज ने अपने नये साथी की ओर देखा, परन्तु गाइड ने तुरन्त कहा, ‘‘प्रकाश नहीं करना।’’
तेज तो अन्धेरे में ही अनुमान लगा रहा था कि यदि गाइड और तिब्बती दोनों उसको मार्ग में मारकर लूटना चाहें तो लूट सकते हैं। दोनों मिलकर उससे बलशाली थे। इस पर भी एक सन्तोष की बात थी कि उसके पास घड़ी के अतिरिक्त अन्य कोई कीमती वस्तु साथ नहीं थी। नकद तो उसके पास आते समय दो सौ रुपया ही था जिस में से चालीस के लगभग शिलांग से आते हुए व्यय हो चुके थे।
वह मन में विचार करता था कि गाइड यह सब जानता है और वह ज्ञान उसकी रक्षा करेगा। साथ ही शिलांग में मिस्टर टॉम के घर पहुंच कर तो वह काफी इनाम दे सकता है।
ये अब एक दिशा में अन्धेरे में ही चले जा रहे थे। तेजकृष्ण को ऐसा अनुभव हुआ कि दोनों मार्ग को भली-भांति जानते हैं। अब गाइड दूसरे दोनों से आगे था। तिब्बती सैनिक अंग्रेज़ी अथवा हिन्दुस्तानी नहीं समझता था। इस कारण दोनों गाइड के पीछे-पीछे चुप-चाप चले जा रहे थे कि इस समय शिविर में गोली चलने का शब्द हुआ। पहले एक फिर कई गोलियां चली। गाइड ने तेज़ को बताया, ‘‘यह हमारे भागने की सूचना अधिकारियों को देने के लिए गोली चलाई गई है। इसका अभिप्राय यह है कि अब हमारी खोज आरम्भ होगी। परन्तु मैं अब नये मार्ग से जा रहा हूं। इस नये मार्ग का वे विचार भी नहीं कर सकते। क्योंकि यह मार्ग ल्हासा का है। वे तो भारत की ओर सीधे मार्ग पर ही हमारा पीछा करेंगे।’’
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