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उपन्यास >> आशा निराशा

आशा निराशा

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7595

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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...


तेजकृष्ण मन में विचार करने लगा कि देशद्रोहियों से वास्ता पड़ा है। फिर यह विचार कर चुप था कि उसका गाइड भारतवासी है अथवा तिब्बती है? वह किसके साथ द्रोह कर रहा है? और यह तिब्बती जो अपनी सेना के साथ द्रोह कर रहा है, क्या उस सेना को दगा नहीं दे रहा, जिसने उसके देश पर बलपूर्वक अधिकार जमाया हुआ है?

इन विचारों के ताने-बाने में वह यह समझा कि जब तक एक देश पर दूसरे देशों का शासन रहेगा, कौन किससे वफ़ादरी करे और किसके साथ बेवफाई करे, कहना कठिन है।

वह अपनी ही बात पर विचार कर रहा था कि वह अपने काम को निर्लेप भाव से कर रहा है, परन्तु कौन इससे क्या लाभ उठा रहा है, कहना कठिन है। उस लाभ से किस देश को लाभ पहुंचेगा और किसको हानि, कहना कठिन है।

इस प्रकार विचारों की उधेड़-बुन में वह वहां रखे एक लकड़ी के तख्ते पर कम्बल ओढ़ कर लेटा तो सो गया। कुछ देर के उपरान्त उसे ऐसा अनुभव हुआ कि उसका गाइड भी उसके समीप ही तख्ते पर लेटा सो रहा है।

रात के समय उसके साथी ने उसे हिलाकर कहा, ‘‘चलो।’’

तेज ने जेब से छोटी सी टॉर्च निकाल कर घड़ी में समय देखा। इस समय बारह बजे थे। तेज ने पूछा, ‘‘किधर और कैसे जाना है?’’
गाइड ने बताया, ‘‘मैं लेट रहा हूं। तुम मेरी टांग को पकड़ लेटे हुए रेंगते हुए चले आओ। मैं उस तिब्बती की टांग पकड़ कर रेंगता हूं और तुम्हारे आगे-आगे चलूंगा।’’

तेज ने कम्बल पीठ पर बांध लिया और भूमि पर लेट गया। गाइड के पांव पकड़े हुए वह पेट के बल खिसकता हुआ ‘हट’ से बाहर निकल गया। ‘हट’ एक अन्य चौकीदार था। अन्धेरे में वह इनकी ओर पीठ किये खड़ा हुआ था।

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