|
उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
|
203 पाठक हैं |
जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘‘तो क्या आदिकाल में स्त्रियों के गर्भाशय में छः फुट के मनुष्य बनने के लिए स्थान था?’’
‘‘नहीं! उस समय गर्भ धारण करने वाली पृथ्वी थी। उसके गर्भ में तो हाथी भी और कदाचित उससे भी बड़े-बड़े जन्तु बने थे।’’
‘‘परन्तु निर्जीव पृथ्वी कैसे जीवधारियों का निर्माण कर सकती है?’’
‘‘यदि यह मानें कि प्रथम सृष्टि अमीबा जैसे जन्तु की हुई तब भी तो निर्जीव पदार्थों से ही हुई थी। प्रश्न यह नहीं हो सकता कि निर्जीव से जीव कैसे हुआ? प्रश्न यह है कि एक प्रकार के जीव से विभिन्न प्रकार के जीव हुए अथवा सब पृथक्-पृथक् हुए? यह तो विकासवादी भी मानते हैं कि एक समय निर्जीव से जीव हुआ था।
‘‘जाति परिवर्तन होती कभी देखी नहीं गई। इस कारण यह कभी नहीं हुई। यह कथन शुद्घ वैज्ञानिक और दार्शनिक है।’’
इस पर एक परीक्षक ने कहा, ‘‘विज्ञान और ‘लौजिक’ को आपने एक ही साँस में कह डाला है। यह प्रमाणित नहीं है।’’
‘‘यह स्वाभाविक है। कारण यह कि विज्ञान से प्रतीत की गई बात में कारण कार्य का सम्बन्ध तो ‘लौजिक’ (दर्शन) से ही पता किया जाता है। बिना ‘लौजिक’ के विज्ञान तो खिलौना मात्र ही है।’’
यह प्रश्नोत्तर एक सप्ताह भर चलता रहा। परीक्षक पांच थे। सब समय मैत्रेयी के गाइड मिस्टर साइमन चुपचाप बैठे सुनते रहे।
सातवें दिन जब यह प्रश्नोत्तर समाप्त हुआ तो पांच में से चार परीक्षकों ने सिफ़ारिश कर दी कि मिस मैत्रेयी को डाक्टरेट की उपाधि दी जा सकती है।
|
|||||










