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उपन्यास >> आशा निराशा

आशा निराशा

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7595

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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...


‘‘तब मुख लम्बा किसलिए किया हुआ है? मैं भी जब प्रोफेसर साहब से बातें करने लगा तो बातें इतनी रुचिकर होने लगीं कि फिर हमें समय का ज्ञान ही नहीं रहा। प्रोफेसर साहब के कमरे में लगे क्लाक ने जब आठ बजाये तो मुझे स्मरण आया कि तुम यहां बैठी हो और मुझे तुम्हारी सुध लेनी चाहिए।’’

इस पर मैत्रेयी ने पूछ लिया, ‘‘माता जी! अब चाय मंगवाऊँ अथवा भोजन करेंगे?’’

उत्तर करोड़ीमल ने दिया। उसने कहा, ‘‘हमने तीन व्यक्तियों के लिए होटल में खाने का आर्डर दिया हुआ है। मैत्रेयी जी भी हमारे साथ होटल में ही खायेंगी।’’

मैंत्रेयी ने कलाई पर बंधी घड़ी में समय देखा और कहा, ‘‘तो फिर चलना चाहिए।’’

‘‘हां! टैक्सी मंगवा लें। हमने अपनी टैक्सी तो यहां पहुंचते ही छोड़ दी थी और प्रोफेसर साहब के क्वार्टर पर तो पैदल ही गया था।’’

मैत्रेयी ने टैक्सी स्टैण्ड पर टेलीफ़ोन किया और उठ चलने को तैयार हो गयी। तीनों क्वार्टर से निकल आए और कमरे को मैत्रेयी ने ताला लगाया ही था कि नीचे से टैक्सी के हॉर्न बजने का शब्द हुआ। मैत्रेयी ने कहा, ’’चलिए! टैक्सी आ गयी है।’’

होटल में मैत्रेयी से तेजकृष्ण के विषय में बातचीत होती रही। इस पर भारत चीन के युद्घ पर बात होने लगी।

इस प्रकार की बात करते-करते भोजन समाप्त हुआ। मैत्रेयी को विदा करते हुए यशोदा ने उसकी पीठ पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘आज जो कुछ मैंने कहा है उसके प्रकाश में अपने मन की प्रतिक्रिया लिखना। यदि तुम्हारा किसी प्रकार का उत्तर आया तो उसके अनुरूप और यदि न आया तो तुम्हारे वैडिंग डिन्नर’ पर मैं आऊंगी और अपना आशीर्वाद दे जाऊँगी।’’

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