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उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
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मैत्रेयी के चले जाने के उपरान्त करोड़ीमल ने पूछ लिया, ‘‘तो क्या बात हुई है?’’
‘‘मैंने उसे बताया था कि विवाह का सबसे आवश्यक अंग संतान उत्पत्ति है और वह उसके विवाह से हो सकनी सम्भव नहीं। विवाह का दूसरा, पहले से कुछ गौण, अंग है जीवन भर की सहचारिता। वह भी इस वृद्ध प्रोफेसर से सम्भव नहीं। विवाह का तीसरा अंग है सुख-दुःख में किसी ऐसे साथी का सामीप्य प्राप्त करना, जिस पर विश्वास किया जा सके। यह भी इस व्यक्ति से सम्भव नहीं। अधिक से अधिक मैत्रेयी इसकी वृद्धावस्था की लाठी बन जाएगी और उसकी मृत्यु के उपरान्त एक व्यर्थ की लाठी रह जाएगी।’’
‘‘उसने मेरी प्रत्येक बात का उत्तर दिया है। उसका कहना था कि मैंने इन सब बातों पर विचार किया है। सन्तानोत्पत्ति मेरे जीवन का कार्य नहीं है। मैं भारतीय शास्त्रों के उद्धार को अपने जीवन का कार्य बना चुकी हूं और इस कार्य में इस महानुभाव ने मेरी बहुत सहायता की है और भविष्य में मैं इससे सहायता की आशा करती हूं। वास्तव में यह कुछ यौन-सुख मुझसे प्राप्त करना चाहता है। वह दिन भर के शुष्क कार्य के उपरान्त सायंकाल उद्यान में भ्रमण के तुल्य ही है।’’
‘‘इनके साथ यदि किसी प्रकार की अस्वाभाविक और असामयिक दुर्घटना न हुई तो भी मेरे जीवन के अन्त तक इनका साथ प्रतीत नहीं होता। परन्तु यह सबके साथ है। मैं तो इस वर्तमान जीवन को अपनी अनन्त यात्रा का एक अंश मात्र ही समझती हूँ। इसमें मुझे मिस्टर विलियम साइमन अच्छा सहयोगी प्रतीत हुआ है।’’
‘‘सबसे बड़ी बात, मैत्रेयी ने यह कही है कि वह उसको वचन दे चुकी है और वह भारतीय संस्कृति की उपज होने के कारण दिये वचन को वापस नहीं लेगी।’’
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